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सीमान्त (Seemant) - रबीन्द्रनाथ टैगोर

सीमान्त (Seemant)
-: रबीन्द्रनाथ टैगोर :-

 

उस दिन सवेरे कुछ ठण्ड थी; परन्तु दोपहर के समय हवा गर्मी पाकर दक्षिण दिशा की ओर से बहने लगी थी। यतीन जिस बरामदे में बैठा हुआ था, वहां से उद्यान के एक कोने में खड़े हुए कटहल और दूसरी ओर के शिरीष वृक्ष के बीच से बाहर का मैदान दिखाई पड़ता है। वह सुनसान मैदान फाल्गुन की धूप में धू-धू करके जल रहा था। उसी से सटा हुआ एक कच्चा रास्ता निकल गया है। उसी पर एक खाली बैलगाड़ी धीमी चाल से गांव की ओर लौट रही थी और गाड़ीवान धूप से बचने के लिए सिर पर लाल रंग का गमछा लपेटे मस्ती में किसी गीत की कड़ियां दोहराता हुआ जा रहा था?
ठीक इसी समय पीछे से किसी नारी का मधुर और हास्य स्वर फूट पड़ा- "क्यों यतीन, क्या बैठे-बैठे अपने पिछले जन्म की किसी बात को सोच रहे हो?" यतीन ने सुना और पीछे की ओर देखकर कहा- "क्या मैं ऐसा ही हतभागा हूं पटल, जो सोचते समय पिछले जन्म के विचारे बिना काम ही नहीं चलेगा।"


अपने परिवार में पटल नाम से पुकारी जाने वाली वह बाला बोल उठी- "झूठी शेखी मत मारो यतीन; तुम्हारे इस जन्म की सारी बातें मुझे मालूम हैं। छि:! छि:! इतनी उम्र हो गई, फिर भी एक बहू घर में न ला सके। हमारा जो धनेसर माली है, उसकी भी एक घरवाली है। रात-दिन उसके साथ लड़-झगड़कर मोहल्ले भर के लोगों को वह कम-से-कम इतना तो बता देती है, कि उसका भी इस दुनिया में अस्तित्व है। तुम तो मैदान की तरफ मुंह करके ऐसे भाव दर्शा रहे हो, मानो किसी पूनम के चांद से सलोने मुखड़े का ध्यान करने के लिए बैठे हो? तुम्हारी इन चालाकियों को मैं खूब समझती हूं। यह सब लोगों को दिखाने के लिए ढोंग रच रखा है। देखो यतीन, जाने-माने ब्राह्मण के लिए जनेऊ की आवश्यकता नहीं पड़ती। हमारा वह धनेसर माली तो कभी विरह का बहाना करके इस सुनसान मैदान की ओर दृष्टि गड़ाये बैठा नहीं रहता। जुदाई की लम्बी घड़ियों में भी उसे वृक्ष के नीचे हाथों में खुरपी थामे समय काटते देखा है; किन्तु उसकी आंखों में ऐसी खुमारी नहीं देखी। एक तुम हो, जिसने सात जन्म से कभी बहू का सलोना मुखड़ा नहीं निहारा। बस, अस्पताल में शव की चीर-फाड़ करके और मोटे-मोटे पोथे रट-रटकर उम्र के सुहावने दिन काट दिये। अब आखिर, इस चिलचिलाती दोपहरी में तुम इस प्रकार ऊपर की ओर टकटकी बांधे क्या देखते रहते हो, कुछ तो कहो? नहीं, ये सब व्यर्थ की चालाकियां मुझे अच्छी नहीं लगतीं। देख-देखकर सारा बदन-अन्तर की ज्वाला से जलने लगता है।
यतीन ने सुना और हाथ जोड़कर कहा-"चलो, रहने भी दो। मुझे व्यर्थ में वैसे ही लज्जित मत करो। तुम्हारा वह धनेसर माली ही सब प्रकार से धन्य रहे। उसी के आदर्शों पर मैं चलने का यत्न करूंगा बस, अब देर नहीं, सवेरे उठते ही सामने लकड़ियां बीनने वाली जिस किसी बाला का मुंह देखूंगा उसी के गले में स्नेह से गुंथी हुई फूलों की माला डाल दूंगा। तुम्हारे ये कटाक्ष भरे शब्द अब मुझसे नहीं सहन होते।"
"बात निश्चित रही न..." पटल ने पूछा।
"हां।"
"तब चलो मेरे साथ।"
यतीन कुछ भी न समझ सका। उसने पूछा- "कहां?"
पटल ने उसे उठाते हुए कहा- "चलो तो सही।"
परन्तु यतीन ने हाथ छुड़ाते हुए कहा-"नहीं, नहीं अवश्य तुम्हें कोई नई शरारत सूझी है। मैं अभी तुम्हारे साथ नहीं जाने का हूं।"
"अच्छा, तो यहीं पड़े रहो- "पटल ने रोष-भरे शब्दों में कहा और शीघ्रता के साथ अन्दर चली गई।
यतीन और पटल की आयु में बहुत थोड़ा अन्तर है और वह है सिर्फ एक दिन का। पटल यतीन से बड़ी थी, चाहे उसे यह बड़प्पन एक ही दिन का मिला हो; लेकिन इस एक दिन के लिए यतीन को उसके लिए लोकाचार हेतु सम्मान दिखाना होगा, यह यतीन को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं। दोनों का सम्बन्ध चचेरे भाई-बहन का है और बचपन एक साथ ही खेलकूद में बीता है। यतीन के मुख से 'दीदी' शब्द न सुनकर पटल ने अनेकों बार पिता और चाचा से उसकी शिकायत की; परन्तु किसी प्रकार से भी इसका खास फल निकला हो, ऐसा नहीं जान पड़ता। संसार में इस एक छोटे भाई के पास भी पटल का छोटा-सा मामूली नाम 'पटल' आज तक नहीं छिप सका।


पटल देखने में खासी मोटी-ताजी, गोल-मटोल लड़की है। उसके प्रसन्न मुख से किये जाने वाले आश्चर्यजनक हास-परिहासों को रोकने की ताकत समाज में भी नहीं थी। उसका चेहरा सास-मां के सामने भी गम्भीरता का साम्राज्य स्थापित नहीं कर सका। पहले-पहल वह इन बातों के कारण इस नए घर में चर्चा का केन्द्र बनी रही। अन्त में स्वयं पराजित होकर परिजनों को कहना पड़ा- "इस बहू के तो ढंग ही अनोखे हैं।"
कुछ दिनों के बाद तो इसकी ससुराल में यहां तक नौबत आ गई, कि इसके हास्य के आघात से परिजनों का गाम्भीर्य भूमिसात हो गया; क्योंकि पटल के लिए किसी का भारी जी और मुंह लटकाना देखना असम्भव है।
पटल के पति हरकुमार बाबू डिप्टी मजिस्ट्रेट हैं। बिहार के एक इलाके से उनकी तरक्की करके उन्हें कलकत्ते के आबकारी विभाग में उच्च पद पर ले लिया गया है। प्लेग के भय से कलकत्ता के बाहर उपनगर में एक किराये के मकान में रहते हैं और वहीं से अपने काम पर कलकत्ते आया-जाया करते हैं। मकान के चारों ओर बड़ी चारदीवारी है और उसी में एक छोटा-सा बगीचा है।
इस आबकारी के विभाग में हरकुमार बाबू को अक्सर दौरे के रूप में अनेक गांवों का चक्कर काटना पड़ता है। पटल इस मौके पर अकेली रह जाती है, जो उसे खलता है। वे इस बात को दूर करने के लिए किसी आत्मीयजन को घर से बुलाने की सोच रहे थे कि उसी समय हाल ही में डॉक्टरी की उपाधि से सुशोभित यतीन चचेरी बहन के निमन्त्रण पर एक सप्ताह के लिए वहां आ पहुंचा।
कलकत्ते की प्रसिध्द अंधेरी गलियों में से होकर पहली बार पेड़-पत्तों के बीच आकर आज यतीन इस सूने बरामदे में फाल्गुन की दुपहरिया से आत्मविभोर बैठा था कि पटल पीछे से आकर यह नई शरारत कर गई। पटल के चले जाने के बाद वह कुछ देर के लिए निश्चिंत होकर बैठ गया। लकड़ी बीनने वाली लड़कियों का जिक्र आ जाने के कारण यतीन का मन बचपन में सुनी परी-देश की रोचक कथाओं के गली-कूचों में चक्कर काटने लगा।
पर कहां? अभी कुछ क्षण भी नहीं बीते होंगे, कि पटल का हास्य से भरा हुआ चिर-परिचित स्वर यतीन के कानों में पड़ा। उसे सुनकर वह चौंक पड़ा। उसने मुड़कर देखा पटल किसी बालिका को खींचे ला रही थी? इतना देखकर यतीन में मुख फेर लिया। तभी पटल ने उस बालिका को यतीन के सामने करके पुकारा- "'चुनिया!" बालिका ने अपना नाम सुन करके कहा- "क्या है दीदी?"


पटल ने चुनिया का हाथ छोड़ते हुए कहा- "मेरा यह भाई कैसा है? देख तो भला।"
चुनिया जो अब तक गर्दन झुकाये हुए थी नि:संकोच यतीन के चेहरे की ओर निहारने लगी।
उसे ऐसा करते हुए देख, पटल ने पूछा-"क्यों री, देखने में तो अच्छा लगता है न?"
चुनिया ने शान्त स्वर से सिर हिलाते हुए कहा- "हां! अच्छा ही है।"
यतीन ने देखा और सुना, फिर लज्जावश कुर्सी से उठता हुआ बोला- "ओह पटल! यह क्या लड़कपन है?"
"मैं लड़कपन कर रही हूं या तुम व्यर्थ में ही बुढ़ापा दिखला रहे हो। पटल ने यतीन के शब्दों को सुनकर नि:संकोच कहा।
'अब बचना मुश्किल है' -यतीन के होंठों से शब्द निकले और वह वहां से भाग गया। पटल ने उसका पीछा किया और भागती हुई बोली। "अरे! सुनो तो, भय की कोई बात नहीं है, यकीन तनिक भी नहीं है। कौन तुम्हारे गले में अभी माला डाल रहा है? फाल्गुन-चैत में तो इस बार कोई लगन ही नहीं पड़ती, अभी बहुत समय है।"
वे दोनों उस जगह से चले गये; परन्तु चुनिया आश्चर्यचकित अवस्था में वहीं खड़ी रह गई। उसके इकहरे बदन ने तनिक भी जुम्बिश न की। उसकी आयु लगभग 16 ही वर्ष की होगी। उसके सलोने मुख का वर्णन पूर्णतया लेखनी से नहीं किया जा सकता; पर इतना अवश्य लिखा जा सकता है, कि उसमें ऐसी आकर्षण शक्ति है, जो देखते ही वन की मृगी की याद दिला देती है। साहित्यिक भाषा में कहने की आवश्यकता पड़े तो उसे निर्बुध्दि भी कहा जा सकता है; किन्तु मूर्ख के साथ उसकी उपमा नहीं दी जा सकती है। हां, अपने समाधान के लिए यह अवश्य सोचा जा सकता है, कि बुध्दिवृत्तिपूर्ण विकसित नहीं हुई है; लेकिन इन सब बातों से चुनिया का सौन्दर्य घटा नहीं; अपितु उसमें एक विशेषता ही आ गई है।


संध्या को हरकुमार बाबू ने कलकत्ते से लौटकर यतीन को देखा तो वे बहुत प्रसन्न हुए और उसी मुद्रा में बोले- "तुम आ पहुँचे, चलो बड़ा ही अच्छा हुआ।"
और फिर दफ्तर के कपड़े बदलकर जल्दी से उसके पास बैठकर कुछ व्यस्त भाव बोले-"यतीन! तुम्हें जरा डॉक्टरी करनी होगी। अकाल के दिनों में जब हम पश्चिम की ओर रह रहे थे; तभी से एक लड़की को पाल रहे हैं। पटल उसे चुनिया कहकर पुकारती है। उसके मां-बाप और वह, सब बाहर मैदान के पास ही एक पेड़ के नीचे पड़े हुए थे। सूचना मिलते ही मैंने बाहर जाकर देखा, तो बेचारे मां-बाप दुनिया के झंझटों से मुक्ति पा चुके थे, सिर्फ लड़की के प्राण अभी बाकी थे। मैंने उस लड़की को वहां से उठाकर पटल को सौंप दिया। पटल ने अपना उत्तरदायित्व समझा और बड़ी सेवा-जतन के बाद उसे बचाने में समर्थ हुई।
उसकी जाति के विषय में कोई कुछ नहीं जानता? यदि उस ओर से कोई ऐतराज भी करता है तो पटल कहती है वह द्विज है। एक बार मरकर फिर
से जो इस घर में जन्मी है। इसलिए इसकी मूल जाति तो कभी की मिट चुकी है।


पहले पहल उसने पटल को मां कहकर पुकारना शुरू किया था; पर पटल को इसमें लज्जा का भास होता था। अत: पटल ने उसे धमकाते हुए कहा- "खबरदार! मुझे अब से मां मत कहना। दीदी कहकर भले ही पुकार सकती हो, पटल कहती है, "अरे, इतनी बड़ी लड़की यदि मुझे मां कहेगी तो मैं अपने आपको बुढ़िया समझने लगूंगी।"
हरकुमार बाबू ने लम्बी सांस खींचकर पुन: कहा- "यतीन एक बात और भी है। शायद उन अकाल के दिनों में या फिर किसी अन्य कारणवश चुनिया को रह-रहकर एक शूल की तरह पीड़ा उठा करती है। असल बात क्या है, सो तुम्हीं को अच्छी तरह डॉक्टरी परीक्षा करके समझना होगा-अरे, ओ तुलसी, चुनिया को तो बुला ला।"
हरकुमार बाबू के इस लम्बे व्याख्यान की समाप्ति पर यतीन खुलकर सांस भी न ले सका था, कि चुनिया केश बांधती हुई, अपनी आधी बंधी बेणी को पीठ पर लटकाये कमरे में दाखिल हुई। अपनी बड़ी-बड़ी गोली आंखों को एक बार दोनों व्यक्तियों पर डालकर चुपचाप खड़ी हो गई।


हरकुमार बाबू सबकी चुप्पी को तोड़कर बोले- "तुम तो व्यर्थ में ही संकोच कर रहे हो यतीन। यह तो देखने भर की बड़ी है। कच्चे नारियल की तरह इसके भीतर सिर्फ स्वच्छ तरल द्रव्य ही छलक रहा है; कठोर गरी की रेखा मात्र भी अभी तक फूटी नहीं है। यह बेचारी कुछ भी समझती-बूझती नहीं है। इसे तुम नारी समझने की भूल मत कर बैठना। यह तो जंगल की भोली-भाली मृगी-मात्र है।"
यतीन चुपचाप अपने डॉक्टरी फर्ज को पूरा करने में लग गया। चुनिया ने भी किसी प्रकार का संकोच नहीं किया और न आपत्ति ही उठाई? यतीन ने थोड़ी देर तक चुनिया के शरीर की जांच-पड़ताल करके कहा- "शरीर यंत्र में कोई विकार पैदा हुआ हो? ऐसा तो दिखाई नहीं देता।"
पटल ने उसी क्षण आंधी के समान वहां पहुंचकर कहा- "हृदय-यंत्र में भी कोई विकार पैदा नहीं हुआ। यतीन परीक्षा करना चाहते हो क्या...अच्छी बात है।"
और फिर वह चुनिया के पास जाकर उसकी ठोड़ी छूती हुई बोली- "चुनिया! मेरा यह भाई तुझे पसंद आया न?"
चुनिया ने सिर हिलाकर कहा- "हां।"
पटल ने फिर पूछा- "मेरे इस भाई से विवाह करेगी?"
चुनिया ने इस बार भी वैसे ही सिर हिलाकर कहा- "हां।"
पटल और हरकुमार बाबू दोनों ही हंस पड़े। चुनिया इस खेल के मर्म को समझकर भी इन्हीं का अनुकरण किए, हंसी से घिरा चेहरा लेकर एकटक ताकती रह गई।
यतीन का चेहरा लज्जा से लाल हो उठा। वह कुछ परेशान-सा होकर बोला- "ओह, पटल! तुम बहुत ज्यादती कर रही हो। यह तो सरासर अन्याय है। हरकुमार बाबू भी तो तुम्हें बढ़ावा दे रहे हैं।"
पटल के कुछ कहने से पूर्व हरकुमार बाबू बोले- "यदि ऐसा न करूं तो मैं इससे प्रश्रय पाने की प्रत्याशा कैसे कर सकता हूं- तनिक बताओ तो सही? लेकिन यतीन, चुनिया को तुम नहीं जानते हो, इसी कारण तुम इतने हैरान हो रहे हो। दिखाई देता है, तुम स्वयं लजा-लजाकर चुनिया को भी लजाना सिखा दोगे। ज्ञान वृक्ष का फल उसे दया कर मत खिलाओ। आज तक हम सब ने सरल भाव से उसके साथ खेल किया है। अब तुम यदि बीच में आकर गम्भीरता दिखाने लगोगे तो उसके लिए बड़ा असंगत-सा मामला हो जायेगा...।"
तभी पटल बोली उठी- "इसी से तो यतीन के साथ मेरी कभी नहीं बनी। बचपन से लेकर आज तक सिर्फ झगड़ा ही हुआ है। यतीन आवश्यकता से अधिक गम्भीर है।"
हरकुमार बाबू किसी रहस्य के मर्म को समझते हुए बोले- "शायद इसी कारण से यह वाक्युध्द करना तुम्हारी आदत बन गई है। जब भाई साहब नौ दो ग्यारह हुए तो फिर मुझ गरीब...।"
पटल ने तुनककर कहा- "फिर वही झूठ! भला आपसे झगड़ा करने में कौन-सा सुख पा जाती हूं- इसलिए मैं उसकी चेष्टा ही नहीं करती?"
मैं शुरू में ही हार मान लेता हूं- "हरकुमार बाबू ने पटल को चिढ़ाने के अभिप्राय से उत्तर दिया।
"बड़ी बहादुरी दिखाते हो न शुरू में हारकर, यदि मेरी अंत में मान लेते, तो कितनी खुशी मुझे होती। आपने कभी समझने का भी प्रयत्न किया है इसे। "इतना कहकर पटल चुनिया को लेकर वहां से चली गई। उसके जाते ही कमरे में नीरवता का आवरण छा गया। वे दोनों एक-दूसरे को देखते हुए शान्त बैठ रहे। थोड़ी देर के बाद तुलसी ने भोजन की सूचना दी। हरकुमार बाबू यतीन को लेकर तुलसी के पीछे रसोईघर में पहुंच गये। पटल वहां न थी। चुनिया ने ही खाना परोसने का काम किया। दोनों भोजन करने बैठ गये। खाते समय बातें करना सभ्यता के विरुध्द समझकर हरकुमार बाबू ने बोलना उचित नहीं समझा-इस प्रकार वह वातावरण शान्त ही बना रहा।


यतीन सारी रात अपने कमरे की खिड़कियां खोलकर जाने क्या-क्या सोचता रहा? जिस लड़की ने अपने मां-बाप को मरते देखा है। उसके जीवन पर कैसी भयंकर छाया आकर पड़ी होगी? ऐसी विदारक घटना के भीतर से आज वह इतनी बड़ी हुई है। उसे लेकर भला कहीं परिहास किया जा सकता है। यही अच्छा हुआ, जो विधाता ने कृपा करके उसकी विकसित बुध्दि पर एक आवरण डाल दिया। यदि किसी कारणवश वह आवरण कभी उठ जाये, तो भाग्य की रुद्र लीला का कैसा भयंकर चिन्ह लक्षित हो उठेगा?
यतीन जब फाल्गुन की दुपहरिया में वृक्षों के अंतराल से आकाश की ओर निहार रहा था और कटहल की कलियों की मादक सुगन्ध से मृदुतर होकर गंध-शक्ति को चहुंओर से घेर रखा था, तो उस समय उसके मन ने सारी दुनिया को माधुर्य के कुहरे से ढके हुए देखा था, लेकिन अब इस बुध्दिहीन लड़की ने अपनी हिरनी जैसी आंखों द्वारा उस सुनहले कुहरे को मानो पानी की काई की तह के समान हटा डाला है।
फाल्गुन के इस आवरण के पीछे जो विश्व भूख-प्यास से विकल, विषाद की भार-स्वरूप गठरी को देह पर लिये विराट प्रतिभा का रूप धरकर खड़ा है, आज वह उद्धाटित यवनिका के शिल्प-मधुरता के अंतराल से स्पष्ट दृष्टिगोचर हुआ है।


कब सवेरा हुआ और पूरा दिन बीतकर शाम होने को आई यह यतीन को ठीक से याद ही नहीं रहा? वह तो पटल के बुलाने पर जब अन्दर गया तो उसने देखा कि चुनिया को वही पीड़ा उठी हुई थी। उसके हाथ-पांव सुन्न हो गये थे और उसका कोमल शरीर अकड़ गया था। यतीन ने दवा लाने के लिए तुलसी को भेजकर बोतल में पानी मंगवाया, पर पटल झट से बोल उठी-"कैसे डॉक्टर बने हो जी? पांवों में तनिक गर्म-गर्म तेल की मालिश भी तो करनी होगी। देखते नहीं, इस बेचारी के तलुवे कैसे बर्फ हो रहे हैं?"
यतीन ने विस्मित नेत्रों से पटल की ओर देखा और उसके हाथ में से गर्म तेल का बर्तन लेकर, रोगिणी के तलुओं में पूरी शक्ति से उस तेल की मालिश शुरू कर दी। इलाज करते हुए रात भी बीतने को आई पर...हरकुमार बाबू कलकत्ते से लौटने पर बार-बार चुनिया की अवस्था के विषय में पूछने लगे। यतीन समझ गया कि इस समय दफ्तर से लौटने पर पटल के बिना। हरकुमार बाबू की अवस्था कुछ ...इसीलिए बार-बार आकर चुनिया की अवस्था को पूछने का यही भेद है।


वह परिहास करता हुआ पटल से बोला-"हरकुमार बाबू छटपटा रहे हैं, तुम अब जाओ।"
उसी समय पटल ने मुंह बनाते हुए गम्भीर मुद्रा में कहा- "दूसरों की दुहाई तो दोगे ही। कौन छटपटा रहा है, सो मैं अच्छी तरह जानती हूं? मेरे चले जाने से ही अब तुम्हें रिहाई मिलेगी न? इधर बात-बात में चेहरे का रंग उषा की तरह लाल हो उठता है। तुम्हारे पेट में भी यह सब छिपा हुआ है, आज से पहले इसे कौन जान सका था?"
यतीन पटल के इस कटाक्ष से तिलमिला उठा। उसने हाथ जोड़ते हुए कहा- "अच्छा, दुहाई तुम्हारी; तुम यहीं रहो। मुझे क्षमा करो। तुम्हारे मुंह पर गम्भीर्य रहने से ही मेरी जान बचेगी मैंने समझने में भूल की थी। हरकुमार बाबू शायद इस समय सुख और शान्ति में हैं। ऐसा सुयोग उनके भाग्य में हमेशा नहीं बदा होता है।"
चुनिया ने तनिक आराम पाकर जब आंखें खोलीं तो पटल ने प्यार भरे स्वर में कहा- "पगली। तेरी हिरनी जैसी आंखें खुलवाने के लिए तेरा वर बड़ी देर से तलुवे सहलाकर तुझे मना रहा है। इसीलिए तूने देर की, अब समझी। छि:! छि:! उठ उसके पवित्र चरणों की धूलि ले।"


चुनिया ने मानो अज्ञात प्रेरणा से उसी क्षण उठकर छुपी हुई श्रध्दा के साथ यतीन के चरणों की धूलि माथे में लगा ली।
और दूसरे ही दिन से यतीन के साथ नए-नए उपद्रवों का श्री गणेश हो गया। यतीन जब भोजन के लिए बैठता तो चुनिया प्रसन्नचित्त विजन डुलाकर मक्खियों को दूर करने में जुट जाती। यतीन व्यस्त भाव से कह उठता- "रहने दो, रहने दो, इसकी आवश्यकता नहीं।"
चुनिया ऐसा सुनकर विस्मित नेत्रों से पार्श्व-कक्ष की ओर देखती और उसके बाद फिर से पंखा डुलाने लग जाती। यतीन जैसे खीज उठता और पटल को सुनाने के अभिप्राय: से कहता- "पटल! तुम यदि इसी प्रकार मुझे तंग करोगी तो मैं कदापि भोजन नहीं करूंगा। यह लो, मैं उठता हूं।"
लेकिन एक दिन यतीन के उठने का उपक्रम देखकर चुनिया ने विजन को एक ओर फेंक दिया। यतीन को उसी क्षण उसके चेहरे पर विषाद की रेखाएं दृष्टिगोचर हुईं। खिन्नावस्था में उसी क्षण वह फिर बैठ गया। चुनिया कुछ भी नहीं समझती है, लजाना उसे आता नहीं है, विषाद् का भार सम्भालने की उसमें क्षमता नहीं है- सबके समान इन बातों पर यतीन के हृदय ने भी विश्वास करना आरम्भ कर दिया था।
किन्तु आज मानो उसे सहसा दिखाई दिया, कि सारे नियमों का व्यक्ति-क्रम करके अकस्मात कब क्या घटित हो जाता है, इसे पहले से कभी नहीं जाना जा सकता है? चुनिया ने फिर विजन नहीं डुलाया। उसे वहीं फेंककर तत्काल ही दूसरे कमरे में चली गई।


यतीन बरामदे में बैठा था। आम के पत्तों के बीच में छिपी हुई कोयल ने उच्च स्वर में अपना तराना छेड़ दिया था। आम मंजरियों की सुगन्ध से सवेरे की हवा भारी हो गई थी। तभी उसने देखा, चुनिया चाय का प्याला हाथ में लिये समीप आने से मानो कुछ झिझक-सी रही है। उसकी भोली और कजरारी आंखों के छोरों में कहां का एक सकरुण भय छुपकर आ बैठा है। उसके चाय लेकर आने से यतीन रीझेगा या खीझेगा, इसे जैसे वह ठीक-ठीक समझ ही नहीं पा रही थी।


यतीन ने सुस्थिर चित्त से उठकर आगे बढ़ते हुए उसके हाथ से चाय का प्याला ले लिया। भला इस हिरनी जैसी आंखों वाली मानवी को किसी क्षुद्र कारणवश कहीं वेदना दी जा सकती है! किन्तु उसने चाय का प्याला हाथ में पकड़ा ही था, कि देखा बरामदे के दूसरे किनारे से सहसा प्रगट होकर पटल ने मौन हास्य द्वारा उंगली दिखाई। भाव बिल्कुल स्पष्ट थे, अब कैसे हारे तुम?
उसी संध्या को यतीन किसी पत्रिका के पृष्ठ पलट रहा था, कि पुष्पों की सुगन्ध से चकित होकर उसने सिर उठाया। देखा मौलसिरी के पुष्पों का हार हाथ में लिये चुनिया धीरे-धीरे उसके कमरे में प्रविष्ट हो रही है।
यतीन के मन-ही-मन में सोचा। यह तो बहुत ज्यादती की जा रही है। पटल के इस निष्ठुर मनोरंजन को अब और अधिक बढ़ावा नहीं देना चाहिए। अत: उसने चुनिया से कहा-"छि: छि:! चुनी! तुम्हें बनाकर दीदी अपना मनोरंजन किया करती हैं, सो क्या तुम इतना भी नहीं समझ पाती?"


बात समाप्त होने से पहले ही चुनिया ने त्रस्त मन और संकुचित भाव से अन्दर की ओर लौट जाने का उपक्रम किया। यतीन ने तब शीघ्रता से उसे बुलाकर कहा- "देखूं तनिक! तुम्हारे इस हार को।"
हाथ आगे करके उसने हार ले लिया। चुनिया के मुख पर से विषाद के बादल फट गये और आनन्द की उज्ज्वल रेखा-सी फूट पड़ी। ठीक उसी समय दूसरे कमरे में से किसी के अट्टहास की उच्छ्वसित ध्वनि सुनाई दी?
दूसरे दिन सवेरे उपद्रव करने के अभिप्राय: से पटल ने यतीन के कमरे में जाकर देखा, कि कमरा सूना पड़ा है। सिर्फ मेज पर पड़े कागज पर लिखा है- "भागा जा रहा हूं, यतीन।"
"अरी ओ चुनिया! तेरा वर तो भाग निकला। उसे तू रोक भी नहीं पाई।" बाहर जाकर पटल ने चुनिया की वेणी पकड़कर डुलाते हुए कहा और फिर घर के काम-धन्धों में लग गई।
किन्तु चुनिया को इस छोटी-सी बात समझने में कुछ समय लगा। वह पाषाण प्रतिमा के समान खड़ी स्थिर दृष्टि से सामने की ओर देखती रही। इसके उपरान्त धीरे-धीरे यतीन के कमरे में जाकर उसने देखा। कमरा खाली पड़ा है और पिछली शाम को उसका दिया हुआ हार उसी तरह मेज पर रखा है।


उस दिन फाल्गुन मास का सवेरा स्निग्ध एवं सुन्दर दिखाई पड़ रहा था कम्पित कृष्ण वृक्ष की शालाओं के भीतर से छनकर और छाया के साथ घुल-मिलकर सवेरे की धूप बरामदे में आ रही थी। गिलहरी अपनी मुलायम पूंछ को पीठ की ओर मोड़े हुए इधर-उधर कुछ पाने की आशा में दौड़ रही थी। पक्षियों का समूह संगठित रूप में अपने मधुर रागों द्वारा भी अपने वक्तव्य को मानो किसी तरह सम्पूर्ण नहीं कर पा रहे थे; किन्तु महान विश्व के इस छोटे से कोने में इस पल्लव समूह काया और धूप के द्वारा बने विश्व के तनिक खंड के भीतर प्राणों का आनन्द पूर्णरूप से खिल उठा था।
उसी एक कोने के बीच यह बुध्दिहीन लड़की अपने जीवन का अपने इर्द-गिर्द के सम्पूर्ण परिवेश का कोई समीचीन अर्थ नहीं खोज पा रही थी? उसके लिए सभी कुछ एक पहेली बन गया था। यह क्यों हो गया?...और ऐसा हुआ क्यों? फिर उसके बाद यह सवेरा, यह घर, सब कुछ एक साथ ही भला इतने सूने क्यों हो गये? जिसके अन्तर में समझने की शक्ति इतनी कम दी थी, उसी को अकस्मात एक दिन हृदय की अतुल वेदना के रहस्य-गर्भ के गाढ़ अन्धकार में बिना ज्योति सहसा किसने उतार दिया? विश्व के इस सहज उच्छवसित जीवमय समाज में इन तरुपल्लवों, मृग-खगों के आत्म-विस्मृत कलरव के भीतर इस प्रगाढ़ अन्धकार से उसे फिर कौन खींचकर बाहर लायेगा।


पटल ने एकाएक पहुंचकर विस्मित स्वर में कहा- "यह क्या हो रहा है, चुनिया?"
चुनिया ने सुना मात्र लेकिन उठी नहीं, कुछ बोली भी नहीं, जैसी थी वैसी ही रही। पटल ने समीप पहुंचकर स्पर्श किया तो उच्छवसित हो वह फूट-फूट कर रोने लगी। अश्रु आंखों के बांध को लांघकर अविरल गति से बहने लगे।
पटल ने आश्चर्यचकित-सी अवस्था में कहा- "अरी कलमुंही, तूने तो बिल्कुल ही सत्यानाश कर लिया। तू क्यों भला मरने गई थी?"
और फिर चुनिया की इस अवस्था से अवगत करने के अभिप्राय: से पटल ने अपने पति के समीप जाकर कहा- "यह तो, अच्छी मुसीबत बैठे-बिठाये गले से बांध ली। आखिर! आपकी अक्ल पर भी क्या पत्थर पड़ गये थे, जो मुझे उस समय रोका नहीं।"
हरकुमार बाबू ने पटल की खीझपूर्ण बात को सुनकर कहा- "तुम्हें रोकने की मेरी कभी आदत ही नहीं रही, फिर रोकने से ही ऐसा कौन-सा हल निकल आता?"
"आप कैसे हो जी- "पटल ने तुनककर कहा- "मैं यदि गलती करूं तो आप जबर्दस्ती नहीं रोक सकते क्या?"
फिर वह उत्तर पाये बिना ही, दौड़ती हुई आकर यतीन के कमरे में विरह-व्यथा से पीड़ित लड़की को आलिंगनबध्द करती हुई बोली- "मेरी रानी बहन! तू क्या चाहती है; सो एक बार तो दिल खोलकर मुझसे कह?"
परन्तु चुनिया के पास ऐसी कौन-सी भाषा है, जिससे वह अपने हृदय के व्याघात को बाणी के द्वारा सुना सके। वह हृदय की सारी वेदना लिये मानो किसी अनिर्वचनीय वेदना पर जा पड़ी है। यह कैसी वेदना है? विश्व में और भी किसी को क्या ऐसी ही अनुभूति होती है? संसार उसके विषय में क्या सोचता होगा? ...किसी भी विषय में चुनिया कुछ भी तो नहीं जानती वह तो केवल अपने इन आंसुओं के द्वारा ही कुछ कह सकती है। मन की पीड़ा को दर्शाने का और तो कोई उपाय उसका जाना हुआ नहीं है।


फिर पटल के ही ओष्ठ हिले- "चुनिया तेरी दीदी बड़ी उछृंखल है, लेकिन स्वप्न में भी नहीं सोचा था। कोई भी कभी उसकी बात पर भरोसा नहीं करता, फिर तूने ही ऐसी भयंकर भूल क्यों की? चुनिया! एक बार बस एक बार अपनी दीदी की ओर मुंह उठाकर तो देख, उसे क्षमा कर दे बहन।"
किन्तु चुनिया का मन इस अकस्मात घटना से बिल्कुल ही विमुख हो चुका था। इसलिए वह किसी भी तरह पटल के मुख की ओर न देख सकी। सारी बातें अच्छी प्रकार से नहीं समझने पर भी उसने एक प्रकार के गूढ़ भाव से पटल पर क्रोध प्रकट किया था। वह उसी अवस्था में अपने हाथों में जोरों से सिर गढ़ाये रही।
पटल तब धीरे-धीरे अपनी लम्बी भुजाओं को हटाकर चुपचाप उठकर चली आई। पाषाण प्रतिमा की तरह खिड़की के किनारे स्तब्ध भाव से आकर खड़ी हो गई। फाल्गुन की धूप से चिकनी चमकीली सुपारी वृक्ष की पल्लव को निहारते-निहारते उसके दोनों नेत्रों से अश्रु बहने लगे।


और अगले दिन चुनिया उसे बिल्कुल दिखाई नहीं दी। पटल उसे बड़े प्यार से अच्छे-अच्छे आभूषणों और वस्त्रों से अलंकृत किया करती थी। वह स्वयं बड़ी बेतरतीबी से रहती, अपनी स्वयं की सजावट के विषय में कोई यत्न नहीं करती थी; लेकिन सजावट की अपनी आकांक्षा को वह चुनिया को सजाकर ही पूरा कर लेती थी। आज बहुत दिनों के संचित वह सारे आभूषण और वस्त्र चुनिया के कमरे में पड़े हुए थे। अपने हाथों के कंगन और चूड़ियां तथा नाक की लोंग तक वह उतारकर डाल गई थी। अपनी पटल दीदी के इतने दिनों के लाड़-प्यार को मानो उसने अपनी देह से बिल्कुल ही चिन्ह-रहित कर डालने का भरसक प्रयत्न किया है।
हरकुमार बाबू ने पता लगाने के लिए पुलिस में सूचना भेजी। उन दिनों प्लेग की महामारी से भयभीत होकर इतने आदमी इतनी विभिन्न दिशाओं में जीवन की साध लेकर भाग रहे थे। उन भगोड़ों के समूह में से किसी खास व्यक्ति को ढूंढ़ निकालना पुलिस के लिए कठिन कार्य बन गया था। दो-चार बार गलत व्यक्ति का पता पाने पर हरकुमार बाबू को काफी दु:खी और लज्जित होना पड़ा।
अन्त में उन्होंने चुनिया के मिलने की आशा को त्याग दिया। एक दिन जिसे अज्ञात की गोद में पड़ा पाया था, वही आज फिर किसी अज्ञात में ही अर्न्तध्यान हो गई थी?
सरकारी प्लेग अस्पातल का डॉक्टर यतीन दोपहर का भोजन करके अस्पताल पहुंचा ही था, कि सूचना मिली, जनाने वार्ड में कोई नई रोगिनी आई है। पुलिस उसे रास्ते से उठाकर लाई है।
यतीन देखने गया। लड़की के मुंह का अधिकांश भाग चादर से ढका हुआ था। यतीन ने हाथ उठाकर नाड़ी को टटोला। ज्वर अधिक नहीं था, लेकिन कमजोरी अधिक थी। विशेष परीक्षा के अभिप्राय: से जब उसने मुख पर से चादर हटाकर देखा तो चकित रह गया, वह चुनिया थी।


यतीन अब तक पटल से चुनिया के विषय में सब-कुछ सुन चुका था। मरीजों की भीड़ से फुर्सत पाते ही यतीन के मानस पटल पर, अव्यक्त हृदय तरंग के घूंघट से ढकी हुई चुनिया की मृगी जैसी दोनों सुन्दर आंखें प्राय: सदा एक प्रकार की अश्रुहीन कातरता को बिखरा दिया करती थी...
आज रोगी की नेत्रों की बड़ी-बड़ी पलकें न चुनिया के शीर्ण कपोलों पर गहरी छाया रेखा खींच रही है। देखते ही यतीन के वक्षस्थल के भीतर मानो किसी ने सहसा मेरु जैसे कोई बोझ दबाकर रख दिया है। इस एक लड़की को भगवान ने स्वयं ही फूल की तरह कोमल रूप में गढ़कर फिर दुनिया से खींचकर प्लेग जैसी महामारी के स्रोत में कैसे बहा दिया? आज उसके क्षीण-मृदु प्राण इस रोग से ग्रसित होकर बिस्तरे पर पड़े हैं। उसकी इस छोटी-सी आयु ने विपदाओं के इतने बड़े आघात, वेदना का इतना भारी बोझ, आखिर कैसे सह लिया? यह सब समा कैसे गए? यतीन ही भला उसके जीवन में तीसरे संकट की तरह कहां से आकर लग गया था?
रुध्द दीर्घ सांसें यतीन के रुध्द द्वार पर निरन्तर धक्के देने लगीं; किन्तु उसी आघात की वेदना से उसके हृदय के तार में किसी अज्ञात सुख की होड़ सी लग गई? जो स्नेह विश्व में मिलना कठिन होता है, वही फाल्गुन की किसी दोपहरिया में पूर्ण विकसित बसन्ती मंजरी के समान अयाचित और अकस्मात ही उसके चरणों के निकट खिसककर जा पड़ी है। जो निश्चल स्नेह इस प्रकार यम के द्वार तक आकर मूर्छित होकर गिर पड़ता है, ऐसे देवयोग नैवद्य का सच्चा अधिकारी दुनिया में इस तरह अनायास ही भला और कौन हो सकता है?


यतीन चुनिया के पार्श्व में बैठकर उसे थोड़ा-थोड़ा गर्म दूध पिलाने लगा, पीते-पीते काफी देर के बाद चुनिया ने दीर्घ सांस लेकर नेत्र खोले। यतीन के चेहरे की ओर देखकर किसी सुन्दर स्वप्न की तरह उसने उसे याद करने का प्रयत्न किया, किन्तु यतीन ने जैसे ही उसके ललाट पर हाथ रखकर हिलाते हुए कहा- "चुनिया।" वैसे ही उसकी बेहोशी की आखिरी खुमारी भी अकस्मात टूट गई। यतीन को उसने पहचान लिया और उसी के साथ उसकी दृष्टि पर किसी सुकुमार मोह का आवरण आ पड़ा। पहले कजरारे बादलों के समागम के साथ आषाढ़ के सुगम्भीर गगन में जैसी गहरी छाया अंकित हो जाती है, चुनिया की काली आंखों पर वैसी ही सुदूर व्यापी सजल स्निग्धता घनीभूत हो गई।


स्नेह और करूण मिश्रित स्वर में यतीन ने कहा-"चुन्नी! यह थोड़ा-सा दूध और पी लो।"
उसी क्षण चुनिया उठकर बैठ गई, फिर प्यार से प्यारे यतीन के मुख की ओर दृष्टि रखे हुए धीरे-धीरे दूध का शेष भाग भी खत्म कर दिया।
अस्पताल का विशेष डॉक्टर यदि एक ही रोगी के सिरहाने बराबर बैठा रहे, तो काम भी नहीं चले और अच्छा भी प्रतीत नहीं होता। इसलिए दूसरी जगहों पर भी अपना फर्ज निभाने के लिए यतीन जब उठा तो भय और निराशा से चुनिया की दोनों आंखें व्याकुल हो उठीं। यतीन ने उसका हाथ थामकर दिलासा देते हुए कहा- "मैं अभी वापस आता हूं चुन्नी। भय की कोई बात नहीं है?"
यतीन ने अस्तपाल के अधिकारी को सूचित किया, कि इस नई रोगिनी को प्लेग नहीं है। वह केवल क्षुधा से पीड़ित होने के कारण ही इतनी क्षीण हो गई है। यहां प्लेग के अन्य रोगियों के साथ रखने से उस पर प्लेग के कीटाणु का आक्रमण हो सकता है।... इस प्रकार समझा-बुझाकर उसे वहां से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए यतीन ने विशेष तौर से इजाजत ले ली और अपने आवास-गृह में ले आया। फिर इस समाचार से सूचित करने के लिए उसने उसी दिन पटल के पास एक पत्र डाल दिया।


उस दिन संध्या को घर में रोगिनी और डॉक्टर के सिवा कोई नहीं था। सिरहाने के पास रंगीन कागज के आवरण से घिरा हुआ मिट्टी के तेल का लैम्प धीमी रोशनी फैला रहा था। कॉर्नस पर रखीं हुई टाइमपीस निस्तब्ध कमरे में टिक-टिक शब्द का सुन्दर राग अलाप रही थी।
यतीन ने चुनिया के ललाट पर हाथ फेरते हुए पूछा- "अब कैसा लगता है चुन्नी?"
चुनिया ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया; परन्तु यतीन का वह हाथ अपने क्षीण हाथों से ललाट पर ही दबा रखा।
यतीन ने पुन: पूछा- "अच्छा लगता है।"


चुनिया ने सुन्दर आंखों पर पलकों के तनिक कपाट बन्द करते हुए कहा- "हां।"
यतीन ने उस उंगली से संकेत करके पूछा- "चुन्नी, तुम्हारे गले में यह क्या है?"
चुनिया ने शीघ्रता के साथ साड़ी का पल्लू खींचकर उसे ढकने का यत्न किया। यतीन ने देखा, उसके गले में मौलसिरी के फूलों का सूखा हुआ हार पड़ा है। टाइमपीस के टिक-टिक शब्द के बीच यतीन चुपचाप बैठा सोचने लगा। अपनी हृदय की बात को छिपाने का यह प्रथम प्रयास है। चुनिया मानो पहले एक मृगछोना थी। मालूम नहीं किस घड़ी हृदय भार से आतुर हो यौवन की मादकता का रूप धारण कर बैठी? किस धूप के उजाले में उसकी ज्वाला की तीक्ष्ण लपटों से चुनिया की समझ पर आच्छादित कुहरा हट गया। उसकी लज्जा, शंका, वेदना, सभी एकदम प्रकाशित हो उठे।
और इन्हीं विचारों में खोये चौकी पर बैठे-ही-बैठे, न जाने कब यतीन की पलकें नींद के बोझ से दब गईं। वह रात्रि के अन्तिम पहर में अचानक द्वार खुलने की आवाज से चौंककर उठ गया। उसकी आंखों ने देखा पटल और हरकुमार बाबू बड़ा-सा बैग लिए कमरे में दाखिल हो रहे हैं।


हरकुमार बाबू ने बैग को कमरे में रखकर और यतीन के पास पहुंचकर कहा-"तुम्हारा पत्र पाकर सवेरे ही चल देने का मैंने विचार किया था; लेकिन जब रात को सो रहा था तो करीब ग्यारह-बारह बजे पटल ने जगाकर कहा- "अजी, सुनते हो, कल सवेरे जाने पर चुनिया को नहीं देख पाएंगे। हमें इसी समय पहुंचना होगा।" उसे मैं किसी प्रकार भी समझा नहीं पाया। तब चटपट एक गाड़ी भाड़े पर लेकर हम लोग उसी क्षण घर से निकले।"
पटल ने तभी अपने पति से कहा- "चलो, यतीन के बिछोने पर आप आराम करें।"
हरकुमार बाबू तनिक-सी आपत्ति का भान करते हुए यतीन के कमरे में जाकर लेट गए और फिर पलक बन्द करते हुए तनिक भी देर नहीं लगी।
रोगिनी के कमरे में वापस आने पर पटल ने यतीन को एक कोने में बुलाकर पूछा- "कुछ आशा है।"
यतीन ने चुनिया की नाड़ी को टटोल सिर हिलाते हुए जताया- "नहीं।"


पटल ने चुनिया के निकट अपने को प्रगट किये बिना ही यतीन को फिर ओट में करके पूछा- "यतीन! सच कहना तुम क्या चुनिया को नहीं चाहते?" इस बार यतीन ने पटल के प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। वह वहां से हटकर चुनिया के बिछौने के छोर पर बैठ गया। उसका हाथ अपने हाथों में धीरे से दबाता हुआ बोला- "चुन्नी! चुन्नी! चुन्नी!"
चुनिया ने आंखों पर से पलकों का आवरण हटाकर चेहरे पर शांत मधुर हंसी का आभास लाते हुए कहा- "क्या है?"
यतीन आशातीत स्वर में बोला- "चुन्नी! अपना यह हार मेरे गले में पहना दो।"
वह निर्निमेष एवं विमूढ़ नेत्रों से केवल यतीन के चेहरे की ओर ताकती रह गई।
यतीन ने फिर कहा- "अपना यह हार क्या मुझे नहीं पहनाओगी चुन्नी?"
यतीन के निकट इस तनिक से दुलार का सहारा पाकर चुनिया के मन में पहले किए गए अनादर का थोड़ा-सा अभिमान जाग उठा, बोली- "इससे क्या होगा?"
यतीन ने उसके दोनों हाथों को अपने हाथों में समेटते हुए कहा- "मैं तुम्हें प्यार करता हूं चुन्नी।"
यतीन के इस वाक्य को सुनकर पल भर के लिए चुनिया स्तब्ध रह गई। फिर उसके दोनों नेत्रों से अविरल खारा जल बहने लगा। यतीन बिछौने से उतरकर भूमि पर घुटने टेककर बैठ गया और चुनिया के हाथों के पास उसने अपना सिर रख दिया। चुन्नी ने अपने गले का हार उतारकर यतीन के गले में पहना दिया।
तब पटल ने चुनिया के पास आकर पुकारा- "चुनिया।"
स्वर को पहचानते ही चुनिया का कांतिहीन मुख चमक उठा, बोली- "क्या है, दीदी?"
पटल उसके क्षीण हाथों को अपने हाथों में थामकर बोली- "अब तो तू मुझसे नाराज नहीं है बहन।"
चुनिया ने स्निग्ध कोमल दृष्टि पटल के चेहरे पर फेंकते हुए कहा- "मैं नाराज कहां थी, दीदी?"
पटल की ओर कोई उत्तर नहीं मिला। वह मुड़कर यतीन से बोली- "यतीन! तुम थोड़ी देर के लिए उधर वाले कमरे में जाकर बैठो।"
यतीन बिना किसी संकोच के चुपचाप चला गया। पटल ने उसके जाते ही बैग खोलकर उसमें से सारे आभूषण और वस्त्र निकाले। फिर रोगिनी को बिना हिलाये-डुलाये खूब सावधानी से उसके कमजोर हाथों में कुछ चूड़ियों को पिरोकर दो कंगन भी पहना दिए। इसके बाद आवाज दी- "यतीन!"


यतीन आ गया। तब उसे शैया पर बिठकार पटल ने उसके हाथों में चुनिया का एक सोने का हार थमा दिया। यतीन ने धीरे-धीरे चुनिया का सिर ऊंचा करके हार उसके गले में पहना दिया।
उषा की लाली में जब सूर्य की प्रथम किरण चुनिया के चेहरे पर पड़ी, तब उसे देखने के लिए वह वहां नहीं थी। उसके अम्लान मुख की कांति देख कर ऐसा प्रतीत नहीं होता था, कि वह मरी पड़ी है। यही जान पड़ता था, मानो किसी अतलस्पर्शी सुखद स्वप्न में वह पूर्णरूप से लीन हो चुकी है?
जब उसके शव को लेकर चलने का समय आया। तब पटल चुनिया की छाती पर पछाड़ खाकर गिर पड़ी और क्रन्दन स्वर में बोली- "बहन! तेरे भाग्य अच्छे थे जीवन की अपेक्षा तेरा मरण ही अधिक सुखद हुआ।" और चुनिया की शान्त-स्निग्ध मृत्यु छवि की ओर निहारते हुए यतीन के अन्तर में बारम्बार यही भाव उठने लगा- जिसका यह धन था, उसी ने ही वापस ले लिया; किन्तु उसने मुझे भी उससे वंचित नहीं रखा।
श्मशान घाट पर पहुंचकर शव जल उठा। शोकातुर अवस्था में यतीन ने अज्ञात प्रेम की सीमा का अन्त कर दिया।

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