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उद्धार (Uddhar) - रबीन्द्रनाथ टैगोर

उद्धार (Uddhar)
-: रबीन्द्रनाथ टैगोर :-

 

गौरी पुराने धनाढ्य घराने की बड़े लाड़-प्यार में पली सुन्दर लड़की है। उसके पति पारस की हालात पहले बहुत ही गिरी हुई थी, पर अब अपनी कमाई के बूते पर उसने कुछ उन्नति की है। जब तक वह गरीब था तब तक उसके सास-ससुर ने इस ख्याल से कि लड़की तकलीफ पाएगी, बहू की विदा नहीं की। गौरी कुछ ज्यादा उमर में ससुराल आई।

शायद इन्हीं कारणों से पारस अपनी सुन्दरी युवती स्त्री को सम्पूर्णत: अपने हाथ की चीज नहीं समझता था। और मिजाज में वहम तो उसके बीमारी बनकर समा गया था।

पारस पछांह के एक छोटे-से शहर में वकालत करता है। घर में अपने कुटुम्ब का कोई न था, अकेली स्त्री के लिए उसका चित्त सदा उद्विग्न बना रहता बीच-बीच में वह अचानक असमय में अदालत से घर चला आता शुरु-शुरु में पति के इस तरह आकस्मिक आगमन का कारण गौरी की कुछ समझ में न आया। बाद में वह क्या समझी सो वही जाने।

बीच-बीच में वह बिना कारण घर का नौकर भी छुड़ा देने लगा। किसी नौकर का ज्यादा दिन तक बना रहना उसे बर्दाश्त नहीं होता। खासकर काम की परेशानी का ख्याल करके गौरी जिस नौकर को रखने के लिए ज्यादा आग्रह करती उसे तो वह फौरन ही निकाल बाहर करता। तेजस्विनी गौरी को इससे जितनी चोट पहुंचती, उसका पति उतना ही चंचल होकर कभी-कभी ऐसा विचित्र बर्ताव कर बैठता कि जिसका ठीकाना नहीं।

अन्त में जब वह अपने को सम्हाल न सका और दासी को एकान्त में बुलाकर उससे तरह-तरह के वहम के सवाल करने लगा तब सब बातें गौरी को भी मालूम होने लगीं। अभिमानिनी स्वल्पभाषिणी नारी अपमान की चोट खाकर सिंहिनी की तरह भीतर ही भीतर उफनने और घुमडऩे लगी, और इस उन्मत्त सन्देह ने दम्पत्ति के बीच में पड़कर खंडप्रलय की तरह दोनों को बिलकुल विच्छिन्न कर दिया।

गौरी के आगे अपना गहरा सन्देह प्रकट करने के बाद पारस की झिझक और शरम जब बिलकुल ही जाती रही तब वह रोजमर्रा कदम-कदम पर साफ-साफ सन्देह प्रकट करके स्त्री से लडऩे लगा, और गौरी जितनी ही गम खाकर मौन अवज्ञा और पैनी निगाहों के तेज तीरों से नीचे से लेकर ऊपर तक उसके सारे बदन में लहूलुहान करने लगी, उसका सन्देह का पागलपन मानो उतना ही बढ़ता चला गया।

इस तरह, दाम्पत्य सुख से वंचित उस पुत्रहीन तरुणी ने अपना सम्पूर्ण अन्त:करण धर्म की चर्चा में लगा दिया। हरिभजन सभा के नवीन प्रचारक ब्रह्माचारी परमानंद स्वामी को बुलाकर गौरी ने उनसे दीक्षा-मन्त्र लिया और 'भागवत' की व्याख्या सुनने लगी। नारी हृदय का सम्पूर्ण व्यर्थ स्नेह एकमात्र भक्ति के रूप में इकट्ठा होकर गुरुदेव के चरणों में लोटने लगा।

परमानंद के साधुचरित्र के संबंध में किसी को भी कोई सन्देह न था। सभी उनकी पूजा करते थे। किन्तु पारस उनके संबंध में मुंह खोलकर सन्देह प्रकट न कर सकने के कारण अत्यंत व्याकुल हो उठा और उसका सन्देह अदीठ फोड़े की तरह क्रमश: खुद उसी के मर्मस्थल को कुरेद-कुरेदकर खाने लगा।

एक दिन जरा-सी किसी बात पर जहर बाहर निकल आया। स्त्री के सामने वह परमानंद को 'दुश्चरित्र, पाखंडी' कहकर गाली देने लगा और कहते-कहते कह बैठा 'तुम अपने शालग्राम को छूकर धर्म से बताओ तो, उस बगुला-भगत को तुम मन-ही-मन प्यार करती हो या नहीं?'

गौरी, पांव-तले दबी नागिन की तरह, एक क्षण में उग्र रूप धारण करके झूठी स्पर्धा से पति को छेदती हुई रूंधे हुए कंठ से फुंकारती हुई बोल उठी, 'हां, करती हूं! तुम्हें जो कुछ करना हो सो कर लो।'

पारस उसी वक्त घर में ताला लगाकर, स्त्री को ताले में बंद करके, अदालत चला गया।

असह्य रोष में आकर गौरी ने किसी तरह दरवाजा खोल लिया, और उसी वक्त वह घर से बाहर निकल गई।

परमानंद अपनी एकांत कोठरी में बैठे शास्त्र पढ़ रहे थे। वहां और कोई भी न था। सहसा गौरी अमेघवाहिनी विद्युल्लता की तरह ब्रह्मचारी के शास्त्राध्ययन के बीच जाकर टूट पड़ी।
गुरु ने कहा, 'यह क्या!'

शिष्या ने कहा, 'गुरुदेव, इस अपमान-भरे संसार से उद्धार करके मुझे और कहीं ले चलो। अब मैं तुम्हारी ही सेवा में अपना जीवन न्यौछावर करना चाहती हूं।'

परमानंद ने बहुत डांट-फटकारकर गौरी को घर वापस कर दिया। किन्तु हाय, गुरुदेव, उस दिन का तुम्हारा वह अकस्मात टूटा हुआ अध्ययनसूत्र क्या फिर पहले जैसा जुड़ सका!

पारस ने घर आकर दरवाजा खुला पाया। स्त्री से पूछा, 'कौन आया था यहां?' स्त्री ने कहा, 'कोई नहीं आया, मैं खुद गुरुदेव के घर गई थी।'

पारस का चेहरा सफेद फक पड़ गया, और दूसरे ही क्षण लाल-सुर्ख होकर बोला, 'क्यों गई थी?'

गौरी ने कहा, 'मेरी तबीयत!'

उस दिन से घर पर पहरा बिठाकर स्त्री को कोठरी में बन्द करके पारस ने ऐसा उपद्रव शुरु कर दिया कि सारे शहर में बदनामी हो गई। इन सब कुत्सित अपमान और अत्याचारों की खबर पाकर परमानंद का हरिभजन बिलकुल ही जाता रहा। इस शहर को छोड़कर वे अन्यत्र कहीं जाने की सोचने लगे, किन्तु बेचारी गौरी को इस दशा में छोड़कर उनसे अन्यत्र कहीं जाते न बना।

और, सन्यासी के इन दिन-रातों का इतिहास अन्तर्यामी के सिवा और कोई भी न जान सका।

अन्त में, उस अवरोध की अवस्था में ही गौरी को एक पत्र मिला। उसमें लिखा था - 'वत्से, मैंने काफी विचार किया है। पहले अनेक साध्वी-साधक रमणियां कृष्ण-प्रेम में अपना घर संसार सबकुछ त्याग चुकी हैं। यदि संसार के अत्याचारों से तुम्हारा चित्त हरि के चरणकमलों से विक्षिप्त हो गया हो, तो मुझे खबर देना। भगवान की सहायता से उनकी सेविका का उद्धार करके उसे मैं प्रभु के अभय पदारविन्द में न्यौछावर करने का प्रयास करूंगा। फाल्गुण शुक्ला त्रयोदशी बुधवार को दिन के दो बजे, तुम चाहो तो, अपने तालाब के किनारे मुझसे भेंट कर सकती हो।'

पति उस पत्र को पढ़कर भीतर-ही-भीतर जल भुनकर खाक हुए जा रहे होंगे, यह सोचकर गौरी मन-ही-मन जरा खुश हुई, किन्तु साथ ही उसका शिरोभूषण 'पत्र' पाखंडी के हाथ पड़कर लांछित हो रहा होगा, यह बात भी उसे सहन नहीं हुई।

वह तेजी से पति के कमरे में पहुंची।

देखा तो पति जमीन पर पड़ा हुआ बुरी तरह तड़प रहा है, मुंह से उसके झाग निकल रहा है और आंखों की पुतलियां ऊपर चढ़ गई है।

पति के दाहिने हाथ की मुट्ठी में से उस पत्र को निकालकर गौरी ने जल्दी से डाक्टर बुलवाया।

डाक्टर ने आकर कहा, 'ऐपोप्लेक्सी, मिरगी है।'

रोगी तब मर चुका था।

उस दिन पारस को किसी जरुरी मामले की पैरवी के लिए बाहर जाना था और, संन्यासी का यहां तक पतन हुआ था कि उस समाचार को पाकर वे गौरी से मिलने के लिए तैयार थे।

सद्य-विधवा गौरी ने खिड़की में से देखा कि उसके गुरुदेव पिछवाड़े के तालाब के किनारे चोर की तरह छिपे खड़े हैं। सहसा उस पर बिजली-सी टूट पड़ी, उसने आंखें नीची कर ली। उसके गुरु कहां से कहां उतर आए हैं, सहसा एक ही क्षण में उसका वीभत्स चित्र उसकी आंखों के सामने नाचने लगा।

गुरु ने पुकारा, 'गौरी!'

गौरी ने कहा, 'आई, गुरुदेव!'

मरने की खबर पाकर पारस के मित्र वगैरह जब घर के भीतर पहुंचे, तब देखा कि गौरी भी पति के बगल में मरी पड़ी है।

उसने जहर खा लिया था और, आधुनिक काल में इस आश्चर्यपूर्ण सहमरण के दृष्टान्त ने सती के माहात्म्य से सबको दंग कर

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