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नई रोशनी (Nai Roshni) - रबीन्द्रनाथ टैगोर

नई रोशनी (Nai Roshni)

-: रबीन्द्रनाथ टैगोर :-

 

बाबू अनाथ बन्धु बी.ए. में पढ़ते थे। परन्तु कई वर्षों से निरन्तर फेल हो रहे थे। उनके सम्बन्धियों का विचार था कि वह इस वर्ष अवश्य उत्तीर्ण हो जाएंगे, पर इस वर्ष उन्होंने परीक्षा देना ही उचित न समझा।
इसी वर्ष बाबू अनाथ बन्धु का विवाह हुआ था। भगवान की कृपा से वधू सुन्दर सद्चरित्रा मिली थी। उसका नाम विन्ध्यवासिनी था। किन्तु अनाथ बाबू को इस हिंदुस्तानी नाम से घृणा थी। पत्नी को भी वह विशेषताओं और सुन्दरता में अपने योग्य न समझते थे।
परन्तु विन्ध्यवासिनी के हृदय में हर्ष की सीमा न थी। दूसरे पुरुषों की अपेक्षा वह अपने पति को सर्वोत्तम समझती थी। ऐसा मालूम होता था कि किसी धर्म में आस्था रखने वाले श्रध्दालु व्यक्ति की भांति वह अपने हृदय के सिंहासन पर स्वामी की मूर्ति सजाकर सर्वदा उसी की पूजा किया करती थी।
इधर अनाथ बन्धु की सुनिये! वह न जाने क्यों हर समय उससे रुष्ट रहते और तीखे-कड़वे शब्दों से उसके प्रेम-भरे मन को हर सम्भव ढंग पर जख्मी करते रहते। अपनी मित्र-मंडली में भी वह उस बेचारी को घृणा के साथ स्मरण करते।
जिन दिनों अनाथ बन्धु कॉलेज में पढ़ते थे उनका निवास ससुराल में ही था। परीक्षा का समय आया, किन्तु उन्होंने परीक्षा दिये बगैर ही कॉलेज छोड़ दिया। इस घटना पर अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा विन्ध्यवासिनी को अधिक दु:ख हुआ। रात के समय उसने विनम्रता के साथ कहना आरम्भ किया-"प्राणनाथ! आपने पढ़ना क्यों छोड़ दिया? थोड़े दिनों का कष्ट सह लेना कोई कठिन बात न थी। पढ़ना-लिखना कोई बुरी बात तो नहीं है।"
पत्नी की इतनी बात सुनकर अनाथ बन्धु के मिजाज का पारा 120 डिग्री तक पहुंच गया। बिगड़कर कहने लगे- "पढ़ने-लिखने से क्या मनुष्य के चार हाथ-पांव हो जाते हैं? जो व्यक्ति पढ़-लिखकर अपना स्वास्थ्य खो बैठते हैं उनकी दशा अन्त में बहुत बुरी होती है।"
पति का उत्तर सुनकर विन्ध्यवासिनी ने इस प्रकार स्वयं को सांत्वना दी जो मनुष्य गधे या बैल की भांति कठिन परिश्रम करके किसी-न-किसी प्रकार सफल भी हो गये, परन्तु कुछ न बन सके तो फिर उनका सफल होना-न-होना बराबर है।
इसके दूसरे दिन पड़ोस में रहने वाली सहेली कमला विन्ध्यवासिनी को एक समाचार सुनाने आई। उसने कहा- "आज हमारे भाई बी.ए. की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गये। उनको बहुत कठिन परिश्रम करना पड़ा, किन्तु भगवान की कृपा से परिश्रम सफल हुआ।"
कमला की बात सुनकर विन्ध्य ने समझा कि पति की हंसी उड़ाने को कह रही है। वह सहन कर गई और दबी आवाज से कहने लगी-"बहन, मनुष्य के लिए बी.ए. पास कर लेना कोई कठिन बात नहीं परन्तु बी.ए. पास कर लेने से होता क्या है? विदेशों में लोग बी.ए. और एम.ए. पास व्यक्तियों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं।"


विन्ध्यवासिनी ने जो बातें कमला से कही थीं वे सब उसने अपने पति से सुनी थीं, नहीं तो उस बेचारी को विलायत का हाल क्या मालूम था। कमला आई तो थी हर्ष का समाचार सुनाने, किन्तु अपनी प्रिय सहेली के मुख से ऐसे शब्द सुनकर उसको बहुत दु:ख हुआ। परन्तु समझदार लड़की थी। उसने अपने हृदयगत भाव प्रकट न होने दिए। उल्टा विनम्र होकर बोली- "बहन, मेरा भाई तो विलायत गया ही नहीं और न मेरा विवाह ऐसे व्यक्ति से हुआ है जो विलायत होकर आया हो, इसलिए विलायत का हाल मुझे कैसे मालूम हो सकता है?"
इतना कहकर कमला अपने घर चली गई।
किन्तु कमला का विनम्र स्वर होते हुए भी ये बातें विन्ध्य को अत्यन्त कटु प्रतीत हुईं। वह उनका उत्तर तो क्या देती, हां एकान्त में बैठकर रोने लगी।
इसके कुछ दिनों पश्चात् एक अजीब घटना घटित हुई जो विशेषत: वर्णन करने योग्य है। कलकत्ता से एक धनवान व्यक्ति जो विन्ध्य के पिता राजकुमार के मित्र थे, अपने कुटुम्ब-सहित आये और राजकुमार बाबू के घर अतिथि बनकर रहने लगे। चूंकि उनके साथ कई आदमी और नौकर-चाकर थे इसलिए जगह बनाने को राजकुमार बाबू ने अनाथ बन्धु वाला कमरा भी उनको सौंप दिया और अनाथ बन्धु के लिए एक और छोटा-सा कमरा साफ कर दिया। यह बात अनाथ बन्धु को बहुत बुरी लगी। तीव्र क्रोध की दशा में वह विन्ध्यवासिनी के पास गये और ससुराल की बुराई करने लगे, साथ-ही-साथ उस निरपराधिनी को दो-चार बातें सुनाईं।
विन्ध्य बहुत व्याकुल और चिन्तित हुई किन्तु वह मूर्ख न थी। उसके लिए अपने पिता को दोषी ठहराना योग्य न था किन्तु पति को कह-सुनकर ठण्डा
किया। इसके बाद एक दिन अवसर पाकर उसने पति से कहा कि- "अब यहां रहना ठीक नहीं। आप मुझे अपने घर ले चलिये। इस स्थान पर रहने में सम्मान नहीं है।"
अनाथ बन्धु परले सिरे के घमण्डी व्यक्ति थे। उनमें दूरदर्शिता की भावना बहुत कम थी। अपने घर पर कष्ट से रहने की अपेक्षा उन्होंने ससुराल का अपमान सहना अच्छा समझा, इसलिए आना-कानी करने लगे। किन्तु विन्ध्यवासिनी ने न माना और कहने लगी- "यदि आप जाना नहीं चाहते तो मुझे अकेली भेज दीजिये। कम-से-कम मैं ऐसा अपमान सहन नहीं कर सकती।"
इस पर अनाथ बन्धु विवश हो घर जाने को तैयार हो गये।


चलते समय माता-पिता ने विन्ध्य से कुछ दिनों और रहने के लिए कहा किन्तु विन्ध्य ने कुछ उत्तर न दिया। यह देखकर माता-पिता के हृदय में शंका हुई। उन्होंने कहा-"बेटी विन्ध्य! यदि हमसे कोई ऐसी वैसी बात हुई हो तो उसे भुला देना।"
बेटी ने नम्रतापूर्वक पिता के मुंह की ओर देखा। फिर कहने लगी- "पिताजी! हम आपके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकते। हमारे दिन सुख से बीते और...।"
कहते-कहते विन्ध्य का गला भर आया, आंखों से आंसू से बहने लगे। इसके पश्चात् उसने हाथ जोड़कर माता-पिता से विदा चाही और सबको रोता हुआ छोड़कर पति के साथ चल दी।
कलकत्ता के धनवान और ग्रामीण जमींदारों में बहुत बड़ा अन्तर है। जो व्यक्ति सर्वदा नगर में रहा हो उसे गांव में रहना अच्छा नहीं लगता। किन्तु विन्ध्य ने पहली बार नगर से बाहर कदम रखने पर भी किसी प्रकार का कष्ट प्रकट न किया बल्कि ससुराल में हर प्रकार से प्रसन्न रहने लगी। इतना ही नहीं, उसने अपनी नारी-सुलभ-चतुरता से बहुत शीघ्र अपनी सास का मन मोह लिया। ग्रामीण स्त्रियां उसके गुणों को देखकर प्रसन्न होती थीं, परन्तु सब-कुछ होते हुए भी विन्ध्य प्रसन्न न थी। अनाथ बन्धु के तीन भाई और थे। दो छोटे एक बड़ा। बड़े भाई परदेश में पचास रुपये के नौकर थे। इससे अनाथ बन्धु के घर-बार का खर्च चलता था। छोटे भाई अभी स्कूल में पढ़ते थे।
बड़े भाई की पत्नी श्यामा को इस बात का घमण्ड था कि उसके पति की कमाई से सबको रोटी मिलती है, इसलिए वह घर के कामकाज को हाथ तक न लगाती थी।
इसके कुछ दिनों पश्चात् बड़े भाई छुट्टी लेकर घर आये। रात को श्यामा ने पति से भाई और भौजाई की शिकायत की। पहले तो पति ने उसकी बातों को हंसी में उड़ा दिया, परन्तु जब उसने कई बार कहा तो उन्होंने अनाथ बन्धु को बुलाया और कहने लगे-"भाई, पचास रुपये में हम सबका गृहस्थ नहीं चल सकता, अब तुमको भी नौकरी की चिन्ता करनी चाहिए।"
यह शब्द उन्होंने बड़े प्यार से कहे थे परन्तु अनाथ बन्धु बिगड़कर बोले- "भाई साहब! दो मुट्ठी-भर अन्न के लिए आप इतने रुष्ट होते हैं, नौकरी तलाश करना कोई बड़ी बात नहीं, किन्तु हमसे किसी की गुलामी नहीं हो सकती।" इतना कहकर वह भाई के पास से चले आये।
इन्हीं दिनों गांव के स्कूल में थर्ड मास्टर का स्थान खाली हुआ था। अनाथ बन्धु की पत्नी और उनके बड़े भाई ने उस स्थान पर उनसे काम करने के लिए बहुत कहा, किन्तु उन्होंने ऐसी तुच्छ नौकरी स्वीकार न की। अब तो अनाथ बन्धु को केवल विलायत जाने की धुन समाई हुई थी। एक दिन अपनी पत्नी से कहने लगे- "देखो, आजकल विलायत गये बिना मनुष्य का सम्मान नहीं होता और न अच्छी नौकरी मिल सकती है। इसलिए हमारा विलायत जाना आवश्यक है। तुम अपने पिता से कहकर कुछ रुपया मंगा दो तो हम चले जाएं।"
विलायत जाने की बात सुनकर विन्ध्य को बहुत दु:ख हुआ, पिता के घर से रुपया मंगाने की बात से बेचारी की जान ही निकल गई।


दुर्गा-पूजा के दिन समीप आये तो विन्ध्य के पिता ने बेटी और दामाद को बुलाने के लिए आदमी भेजा। विन्ध्य खुशी-खुशी मैके आई। मां ने बेटी और दामाद को रहने के लिए अपना कमरा दे दिया। दुर्गा-पूजा की रात को यह सोचकर कि पति न जाने कब वापस आएं, विन्ध्य प्रतीक्षा करते-करते सो गई।
सुबह उठी तो उसने अनाथ बन्धु को कमरे में न पाया। उठकर देखा तो मां का लोहे का सन्दूक खुला पड़ा था, सारी चीजें इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं और पिता का छोटा कैश-बाक्स जो उसके अन्दर रखा था, गायब था।
विन्ध्य का हृदय धड़कने लगा। उसने सोचा कि जिस बदमाश ने चोरी की है उसी के हाथों पति को भी हानि पहुंची है।
परन्तु थोड़ी देर बार उसकी दृष्टि एक कागज के टुकड़े पर जा पड़ी। वह उठाने लगी तो देखा कि पास ही कुंजियों का एक गुच्छा पड़ा है। पत्र पढ़ने से मालूम हुआ कि उसका पति आज ही प्रात: जहाज पर सवार होकर विलायत चला गया है।
पत्र पढ़ते ही विन्ध्य की आंखों के सामने अन्धेरा छा गया।
वह दु:ख के आघात से जमीन पर बैठ गई और आंचल से मुंह ढांपकर रोने लगी।
आज सारे बंगाल में खुशियां मनाई जा रही थीं किन्तु विन्ध्य के कमरे का दरवाजा अब तक बन्द था। इसका कारण जानने के लिए विन्ध्य की सहेली कमला ने दरवाजा खटखटाना आरम्भ किया, किन्तु अन्दर से कोई उत्तर न मिला तो वह दौड़कर विन्ध्य की मां को बुला लाई। मां ने बाहर खड़ी होकर आवाज दी- "विन्ध्य! अन्दर क्या कर रही है? दरवाजा तो खोल बेटी!"
मां की आवाज पहचानकर विन्ध्य ने झट आंसुओं को पोंछ डाला और कहा-"माताजी! पिताजी को बुला लो।"
इससे मां बहुत घबराई, अत: उसने तुरन्त पति को बुलवाया। राजकुमार बाबू के आने पर विन्ध्य ने दरवाजा खोल दिया और माता-पिता को अन्दर बुलाकर फिर दरवाजा बंद कर लिया।
राजकुमार ने घबराकर पूछा- "विन्ध्य, क्या बात है? तू रो क्यों रही है?"
यह सुनते ही विन्ध्य पिता के चरणों में गिर पड़ी और कहने लगी- "पिताजी! मेरी दशा पर दया करो। मैंने आपका रुपया चुराया है।"
राजकुमार आश्चर्य-चकित रह गये। उसी हालत में विन्ध्य ने फिर हाथ जोड़कर कहा-"पिताजी, इस अभागिन का अपराध क्षमा कीजिए। स्वामी को विलायत भेजने के लिए मैंने यह नीच कर्म किया है।'
अब राजकुमार को बहुत क्रोध आया। डांटकर बोला- "दुष्ट लड़की, यदि तुझको रुपये की आवश्यकता थी तो हमसे क्यों न कहा?"
विन्ध्य ने डरते-डरते उत्तर दिया-"पिताजी! आप उनको विलायत जाने के लिए रुपया न देते।"
ध्यान देने योग्य बात है कि जिस विन्ध्य ने कभी माता-पिता से रुपये पैसे के लिए विनती तक न की थी आज वह पति के पाप को छिपाने के लिए चोरी का इल्जाम अपने ऊपर ले रही है।
विन्ध्यवासिनी पर चारों ओर से घृणा की बौछारें होने लगीं। बेचारी सब-कुछ सुनती रही, किन्तु मौन थी।
तीव्र क्रोधावेश की दशा में राजकुमार ने बेटी को ससुराल भेज दिया।


इसके बाद समय बीतता गया, किन्तु अनाथ बंधु ने विन्ध्य को कोई पत्र न लिखा और न अपनी मां की ही कोई सुधबुध ली। पर जब आखिरकार सब रुपये, जो उनके पास थे खर्च हो गये तो बहुत ही घबराये और विन्ध्य के पास एक तार भेजकर तकाजा किया। विन्ध्य ने तार पाते ही अपने बहुमूल्य आभूषण बेच डाले और उनसे जो मिला वह अनाथ बाबू को भेज दिया। अब क्या था? जब कभी रुपयों की आवश्यकता होती वह झट विन्ध्य को लिख देते और विन्ध्य से जिस तरह बन पड़ता, अपने रहे-सहे आभूषण बेचकर उनकी आवश्यकताओं को पूरा करती रहती। यहां तक कि बेचारी गरीब के पास कांच की दो चूड़ियों के सिवाय कुछ भी शेष न रहा।
अब अभागी विन्ध्य के लिए संसार में कोई सुख शेष न रहा था। सम्भव था वह किसी दिन दुखी हालत में आत्महत्या कर लेती। किन्तु वह सोचती कि मैं स्वतंत्र नहीं, अनाथ बन्धु मेरे स्वामी हैं। इसलिए कष्ट सहते हुए भी वह जीवन के दु:ख उठाने पर विवश थी। अनाथ बन्धु के लिए वह जीवित रहकर अपना
कर्त्तव्य पूरा कर रही थी किन्तु अब चूंकि उसके लिए विरह का दु:ख सहना
कठिन हो गया था इसलिए विवश होकर उसने पति के नाम वापस आने के लिए पत्र लिखा।
इसके थोड़े दिनों बाद अनाथ बन्धु बैरिस्टरी पास करके साहब बहादुर बने हुए वापस लौट आये परन्तु देहात में बैरिस्टर साहब का निर्वाह होना कठिन था इसलिए पास ही एक कस्बे में होटल का आश्रय लेना पड़ा। विलायत में रहकर अनाथ बन्धु के रहन-सहन में बहुत अन्तर आ गया था। वह ग्रामीणों से घृणा करते थे। उनके खान-पान और रहन-सहन के तरीकों से यह भी मालूम न होता था कि वह अंग्रेज हैं या हिंदुस्तानी।
विन्ध्य यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुई कि स्वामी बैरिस्टर होकर आये हैं, किंतु मां उसकी बिगड़ी हुई आदतों को देखकर बहुत व्याकुल हुई। अंत में उसने भी यह सोचकर दिल को समझा लिया कि आजकल का जमाना ही ऐसा है, इसमें अनाथ बन्धु का क्या दोष?
इसके कुछ समय पश्चात् एक बहुत ही दर्द से भरी घटना घटित हुई। बाबू राजकुमार अपने कुटुम्ब-सहित नाव पर सवार होकर कहीं जा रहे थे कि सहसा नौका जहाज से टकराकर गंगा में डूब गई। राजकुमार तो किसी प्रकार बच गये किन्तु उनकी पत्नी और पुत्र का कहीं पता न लगा।
अब उनके कुटुम्ब में विन्ध्य के सिवाय कोई दूसरा शेष न रहा था। इस दुर्घटना के पश्चात् एक दिन राजकुमार बाबू विकल अवस्था में अनाथ बन्धु से मिलने आये। दोनों में कुछ देर तक बातचीत होती रही, अन्त में राजकुमार ने कहा- "जो कुछ होना था सो तो हुआ, अब प्रायश्चित करके अपनी जाति में सम्मिलित हो जाना चाहिए। क्योंकि तुम्हारे सिवाय अब दुनिया में हमारा कोई नहीं, बेटा या दामाद जो कुछ भी हो, अब तुम हो।"


अनाथ बन्धु ने प्रायश्चित करना स्वीकार कर लिया। पंडितों से सलाह ली गई तो उन्होंने कहा- "यदि इन्होंने विलायत में रहकर मांस नहीं खाया है तो इनकी शुध्दि वेद-मन्त्रों द्वारा की जा सकती है।"
यह समाचार सुनकर विन्ध्य हर्ष से फूली न समाई और अपना सारा दु:ख भूल गई। आखिर एक दिन प्रायश्चित की रस्म अदा करने के लिए निश्चित किया गया।
बड़े आनन्द का समय था, चहुंओर वेद-मन्त्रों की गूंज सुनाई देती थी। प्रायश्चित के पश्चात् ब्राह्मणों को भोजन कराया गया और इसके परिणामस्वरूप बाबू अनाथ बन्धु नए सिरे से बिरादरी में सम्मिलित कर लिये गये।
परन्तु ठीक उसी समय राजकुमार बाबू ब्राह्मणों को दक्षिणा दे रहे थे, एक नौकर ने कार्ड लिये हुए घर में प्रवेश किया और राजकुमार से कहने लगा- "बाबू जी! एक मेम आई हैं।"
मेम का नाम सुनते ही राजकुमार बाबू चकराए, कार्ड पढ़ा। उस पर लिखा था-"मिसेज अनाथ बन्धु सरकार।"
इससे पहले कि राजकुमार बाबू हां या न में कुछ उत्तर देते एक गोरे रंग की यूरोपियन युवती खट-खट करती अन्दर आ उपस्थित हुई।
पंडितों ने उसको देखा, तो दक्षिणा लेनी भूल गये। घबराकर जिधर जिसके सींग समाये निकल गये। इधर मेम साहिबा ने जब अनाथ बन्धु को न देखा तो बहुत विकल हुई और उनका नाम ले-लेकर आवाजें देने लगी।
इतने में अनाथ बन्धु कमरे से बाहर निकले। उन्हें देखते ही मेम साहिबा 'माई डीयर' कहकर झट उनसे लिपट गई।
यह दशा देखकर घर के पुरोहित भी अपना बोरिया-बंधना संभाल कर विदा हो गये। उन्होंने पीछे मुड़कर भी न देखा।

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