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तलाक लेने की प्रक्रिया क्या है ? ये किन किन परिस्थितियों में लिया जा सकता है | Divorce Law In India |

1953

तलाक मुस्लिम धर्म में जायज माना गया है, जबकि हिंदू धर्म में तलाक के लिए कोई धार्मिक विधि नहीं है, हिंदू धर्म में शादी को पवित्र बंधन माना गया है जिसमें पति-पत्नी सात जन्मों तक साथ रहने की कसम खाते है. हिन्दू धर्म में तलाक की कोई धार्मिक रीति ना होने की वजह से 1955 में हिंदू विवाह अधिनियम लाया गया था. जिसके  कारण हिन्दू धर्म में भी तलाक कानूनन हो गया है |
 

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प्रारंभिक हिन्दू विधि में तलाक या विवाह विच्छेद की कोई अवधारणा उपलब्ध नहीं थी। हिन्दू विधि में विवाह एक बार हो जाने के बाद उसे खंडित नहीं किया जा सकता था।इसी कमी को पूरा करने के लिए 1955 में हिंदू विवाह अधिनियम लाया गया था. इस अधिनियम के तहत 13(1) और 13(B) के तहत तलाक लिया जा सकता है.

इस अधिनियम के तहत अगर दोनों पक्ष तलाक के लिए राजी हों तो हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 (B) के आधार पर दोनों पक्ष सहमति से तलाक के लिए अर्जी दायर कर सकते हैं. लेकिन, पति-पत्नी में से कोई भी एक अगर आपसी सहमति से तलाक के लिए राजी नहीं हैं, तो इसी अधिनियम की धारा 13 (1) के तहत कोई एक भी कोर्ट में तलाक के लिए अर्जी दाखिल कर सकता है.

 

हिन्दू विवाह विघटन अधिनियम


13 (B) के तहत तलाक लेने की प्रकिया

पहला प्रक्रिया :- पति-पत्नी दोनों को कोर्ट में तलाक के लिए अर्जी देनी होती है.
दूसरा प्रक्रिया :- दूसरे प्रक्रिया में कार्ट अपने समक्ष पति-पत्नी दोनों के बयान रिकॉर्ड करवाता है और दोनों पक्षों के पेपर पर दस्तखत लिए जाते हैं.
तीसरा प्रक्रिया :- कोर्ट दोनों को आपसी सुलह करने के लिए 6 महीने का वक्त देता है. इस तरह के मामले में अदालत की कोशिश होती है कि दोनों पक्ष आपसी सहमति से मामले को सुलझा लें.
चौथा प्रक्रिया :- जैसे ही आपसी सुलह के लिए दी गई मियाद पूरी होती है, कोर्ट दोनों पक्षों को अंतिम सुनवाई के लिए बुलाता है.
पांचवा प्रक्रिया :- केस की अंतिम सुनवाई में कोर्ट अपना फैसला सुनाता है.

 

13 (1) के तहत तलाक लेने की प्रकिया

इस प्रकिया के लिए दाखिल अर्जी में व्यभिचार, क्रूरता, परित्याग, धर्मान्तरण, मानसिक विकार, कुष्ठ, यौन रोग, सात साल तक जिंदा ना मिलना, सहवास की बहाली के आधार पर तलाक के लिए अर्जी दाखिल की जा सकती है. ये पूरी प्रकिया कई चरणों में पूरी होती है.

पहला प्रक्रिया :- इसमें सबसे पहले यह सुनिश्चित करना होता है कि तलाक किस आधार पर लेना है.
दूसरा  प्रक्रिया :- इसके बाद जिस आधार पर तलाक लेने के लिए अर्जी दायर की जाती है, उसके लिए सबूत इकट्ठा करना होता है.
तीसरा  प्रक्रिया :- तीसरे चरण में सारे सबूत और दस्तावेज कोर्ट में जमा करने होते हैं.
चौथा प्रक्रिया :-

(A) सारे कागज कोर्ट में जमा होने के बाद कोर्ट दूसरे पक्ष को न्यायालय में हाजिर होने का आदेश देता है. अगर दूसरा पक्ष कोर्ट में हाजिर नहीं होता है तब कोर्ट जमा किए गए कागजों के आधार पर कार्रवाई को आगे बढ़ाता है.
(B) अगर दूसरा पक्ष कोर्ट में हाजिर हो जाता है तब कोर्ट दोनों पक्षों की बात सुनकर मामले को आपसी सहमति से सुलझाने की कोशिश करता है. कोर्ट दोनों को कुछ वक्त ये तय करने के लिए देता है कि दोनों साथ रहना चाहते हैं या तलाक चाहते हैं.

पांचवा  प्रक्रिया :- तय वक्त में अगर दोनों पक्ष आपस में सुलह करने में नाकाम रहते हैं तब अर्ज़ी दायर करने वाला पक्ष दूसरे पक्ष के खिलाफ लिखित बयान के रूप में याचिका देता है. ये याचिका देने के लिए कोर्ट 30 से 90 दिनों का वक्त देता है.
छठा  प्रक्रिया :- लिखित बयान जमा करने की प्रक्रिया पूरी होने के बाद कोर्ट तय करता है कि आगे किस प्रकिया का पालन करना है.
सातवा प्रक्रिया :- इसके बाद कोर्ट की सुनवाई की प्रक्रिया शुरू होती है और दोनों पक्षों के द्वारा जमा किए गए सबूतों और कागजों को फिर से चेक किया जाता है.
आठवां  प्रक्रिया :- इस चरण में दोनों पक्षों को सुनने और सारे सबूतों को देखने के बाद अदालत अपना फैसला सुनाती है. यह प्रक्रिया काफी लंबी होती है, जिसमें कई बार सालों का वक्त लग जाता है.

 

मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम

मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 मुस्लिम विधि के अधीन विवाहित स्त्रियों द्वारा विवाह विघटन के वादों से संबंधित मुस्लिम विधि के उपबन्धों का समेकन करने और उन्हें स्पष्ट करने, तथा किसी विवाहित मुसलमान स्त्री द्वारा इस्लाम धर्म के त्याग के उसके विवाह-बन्धन पर प्रभाव के बारे में शंकाएं दूर करने के लिए अधिनियम

यह समीचीन है कि मुस्लिम विधि के अधीन विवाहित स्त्रियों द्वारा विवाह विघटन के वादों से सम्बन्धित मुस्लिम विधि के उपबन्धों का समेकन किया जाए और उन्हें स्पष्ट किया जाए तथा किसी विवाहित मुसलमान स्त्री द्वारा इस्लाम धर्म के त्याग के उसके विवाह-बन्धन पर प्रभाव के बारे में शंकाएं दूर की जाएं; अतः एतद्द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित किया जाता है

विवाह-विघटन की डिक्री के लिए आधार-मुस्लिम विधि के अधीन विवाहित स्त्री अपने विवाह के विघटन के लिए निम्नलिखित आधारों में से किसी एक या अधिक आधार पर डिक्री प्राप्त करने की हकदार होगी,

  1. चार वर्ष से पति का ठौर-ठिकाना ज्ञात नहीं है|  (पर पारित डिक्री, ऐसी डिक्री की तारीख से छह मास तक प्रभावी नहीं होगी और यदि पति या तो स्वयं या किसी प्राधिकृत अभिकर्ता के माध्यम से उस अवधि में हाजिर हो जाता है, और न्यायालय का यह समाधान कर देता है कि वह अपने दाम्पत्य कर्तव्यों का पालन करने के लिए तैयार है, तो न्यायालय उक्त डिक्री को अपास्त कर देगा)
  2. पति ने दो वर्ष तक उसके भरण-पोषण की व्यवस्था करने में उपेक्षा की है या उसमें असफल रहा है;
  3. पति को सात वर्ष या उससे अधिक की अवधि के लिए कारावास का दण्ड दिया गया है; (पर तब तक कोई डिक्री पारित नहीं की जाएगी जब तक दण्डादेश अन्तिम न हो गया हो;)
  4. पति तीन वर्ष तक अपने वैवाहिक कर्तव्यों का पालन करने में समुचित कारण बिना असफल रहा है;
  5. पति विवाह के समय नपुंसक था और बराबर नपुंसक रहा है;
  6. पति दो वर्ष तक उन्मत्त रहा है या कुष्ठ या उग्र रतिज रोग से पीड़ित है;
  7. पन्द्रह वर्ष की आयु प्राप्त होने से पहले ही उसके पिता या अन्य संरक्षक ने उसका विवाह किया था और उसने अठारह वर्ष की आयु प्राप्त करने से पूर्व ही विवाह का निराकरण कर दिया है, (परन्तु यह तब जब विवाहोत्तर संभोग न हुआ हो)
  8. पति उसके साथ क्रूरता से व्यवहार करता है, अर्थात्
  • अभ्यासतः उसे मारता है या क्रूर-आचरण से उसका जीवन दुखी करता है, भले ही ऐसा आचरण शारीरिक दुर्व्यवहार की कोटि में न आता हो, या
  • कुख्यात स्त्रियों की संगति में रहता है या गर्हित जीवन बिताता है, या
  • उसे अनैतिक जीवन बिताने पर मजबूर करने का प्रयत्न करता है, या
  • उसकी सम्पत्ति का व्ययन कर डालता है या उसे उस पर अपने विधिक अधिकारों का प्रयोग करने से रोक देता है| (पर कोई डिक्री पारित करने के पूर्व न्यायालय, पति द्वारा आवेदन किए जाने पर, ऐसा आदेश करेगा जिसमें पति से यह अपेक्षा की जाएगी कि वह उस आदेश की तारीख से एक वर्ष के भीतर न्यायालय का यह समाधान कर दे कि वह नपुंसक नहीं रह गया है और यदि पति उस अवधि में इस प्रकार न्यायालय का समाधान कर देता है तो उक्त आधार पर कोई भी डिक्री पारित नहीं की जाएगी।)
  • धर्म को मानने या धर्म-कर्म के अनुपालन में उसके लिए बाधक होता है, या
  • यदि उसकी एक से अधिक पत्नियां हैं तो कुरान के आदेशों के अनुसार उसके साथ समान व्यवहार नहीं करता है


पति के वारिसों पर सूचना की तामील किया जाना जब पति का ठौर-ठिकाना ज्ञात नहीं है-किसी ऐसे वाद में, जिसे धारा 2 का खण्ड (त्) लागू होता है-

  1. ऐसे व्यक्तियों के नाम तथा पते वादपत्र में लिखे जाएंगे जो मुस्लिम विधि के अधीन पति के वारिस होते यदि वादपत्र फाइल करने की तारीख को उसकी मृत्यु हो जाती;
  2. वाद की सूचना की तामील ऐसे व्यक्तियों पर की जाएगी; और
  3. ऐसे व्यक्तियों को वाद में सुनवाई का अधिकार होगा (परन्तु पति के चाचा तथा भाई को, यदि कोई हो, एक पक्षकार के रूप में उल्लिखित किया जाएगा, भले ही वे वारिस न हों ।)

अन्य धर्म में संपरिवर्तन का प्रभाव-किसी विवाहित मुसलमान स्त्री द्वारा इस्लाम धर्म का त्याग या इस्लाम से भिन्न किसी धर्म में उसका संपरिवर्तन से स्वयंमेव उसके विवाह का विघटन नहीं होगा, परन्तु ऐसे त्याग, या संपरिवर्तन के पश्चात्, वह स्त्री धारा 2 में उल्लिखित आधारों में से किसी भी आधार पर अपने विवाह के विघटन के लिए डिक्री प्राप्त करने की हकदार होगी, परन्तु यह और कि इस धारा के उपबन्ध, किसी अन्य धर्म से इस्लाम धर्म में संपरिवर्तित किसी ऐसी स्त्री को लागू नहीं होंगे, जो अपने भूतपूर्व धर्म का पुनःअंगीकार कर लेती है ।

मेहर विषयक अधिकारों पर प्रभाव न होना-इस अधिनियम की कोई भी बात विवाहित स्त्री के किसी ऐसे अधिकार पर प्रभाव नहीं डालेगी, जो उसके विवाह विघटन पर उसके मेहर या मेहर के किसी भाग के बारे में मुस्लिम विधि के अधीन हो ।

[1937 के अधिनियम सं० 26 की धारा 5 का निरसन ।]-निरसन तथा संशोधन अधिनियम, 1942 (1942 का 25) की धारा 2 तथा अनुसूची 1 द्वारा निरसित ।

  • answered 3 years ago
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