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बिहार के प्रसिद्ध साहित्यकार (Famous Litterateur of Bihar)

बिहार हमेशा से साहित्यकारों, अध्यात्मिक गुरुओ  और ऋषियों  की  घरती रहा है , अगर  पौराणिक काल की बात करते है तो, गौतम, विश्वामित्र, कपिल, कनादी, याग्बल्ल्व, अष्टावक्र, जैमिनी आदि दिव्य बिभुतियो से  तो मध्यकाल में महात्मा बुद्ध , भगवान महावीर , कालिदास , विद्यापति, गुरु गोबिंद सिंह से गौरवपूर्ण रहा है | इनका वर्णन तो हजार मुखो से भी असंभव है , फिर भी आज हम उन साहित्यकारों के बारे संक्षिप्त जानकारी लेने का कोशिश करते है, जिनका बिहार से सम्बन्ध है


विद्यापति(Vidhyapati)

यह निश्चिततापूर्वक नहीं जाना जाता है कि विद्यापति का जन्म कब हुआ था और वे कितने दिन जीते रहे | मैथिल  कवि कोकिल, रसासिद्ध कवि विद्यापति, तुलसी, सूर, कबूर, मीरा सभी से पहले के कवि हैं। अमीर खुसरो यद्यपि इनसे पहले हुए थे। महाकवि विद्यापति का जन्म वर्तमान मधुबनी जनपद के बिसपू नामक गाँव में एक सभ्रान्त मैथिल ब्राह्मण गणपति ठाकुर (इनके पिता का नाम) के घर हुआ था। बाद में यसस्वी राजा शिवसिंह ने यह गाँव विद्यापति को दानस्वरुप दे दिया था। इस दानपत्र कि प्रतिलिपि आज भी विद्यापति के वंशजों के पास है जो आजकल सौराठ नामक गाँव में रहते हैं।  भारतीय भक्ति साहित्य की  प्रमुख स्तंभों मे से एक और मैथिली के सर्वश्रेष्ठ  कवि के रूप में जाने जाते हैं। इन्हें वैष्णव और शैव तथा शाक्त  भक्ति के सेतु के रूप में भी स्वीकार किया गया है। इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरुप के रूप में देखा  जा सकता है।  मिथिला के लोगों को 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा' का सूत्र दे कर इन्होंने उत्तरी-बिहार में लोकभाषा की जनचेतना को जीवित करने का महत्वपूर्ण  प्रयास किया है। मिथिलांचल के लोकव्यवहार में प्रयोग किये जानेवाले गीतों में आज भी विद्यापति की श्रृंगार और भक्ति रस में पगी रचनायें जीवित हैं। पदावली और कीर्तिलता इनकी अमर रचनायें हैं। इनका संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश एवं मातृ भाषा मैथिली पर समान अधिकार था। विद्यापति की रचनाएँ संस्कृत, अवहट्ट, एवं मैथिली तीनों में मिलती हैं।

कालिदास (Kalidas)


इनका जन्म स्थान कहाँ है इस पर विद्वानों का मतभेद है, परन्तु एक किवदंती के अनुसार माना जा सकता है की  कालिदास अत्यंत मुर्ख था  जिससे उनकी पत्नी कुपित होकर उन्हें त्याग कर दिया था | माना जाता है की मिथिला में सिद्ध शक्तिपीठ  उच्चैठ  में अबस्थित माँ दुर्गा , उनके मुर्खता से प्रसन्न होकर  उन्हें  बरदान दिया था जिनके फलस्वरूप वे एक ही रात में  विद्वान हो गए, आज भी मिथिला में लोग इस घटना को लोक कथा के रूप में याद करते है , और आज भी वहाँ  कालिया डीह  है,  जो पहले क्षत्रावास था जहाँ  कालिदास नौकरी करते थे | इससे एक अवधारणा यह भी है की कालिदास का जन्म मिथिला , बिहार में हुआ था ..

रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar)

हिन्दी के प्रसिद्ध कवियों में से एक राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 ई. में सिमरिया, मुंगेर (बिहार) में एक सामान्य किसान 'रवि सिंह' तथा उनकी पत्नी 'मनरूप देवी' के पुत्र के रूप में हुआ था। इनकी मृत्यु 24 अप्रैल, 1974 को चेन्नई में हुई ।   
 रामधारी सिंह दिनकर एक तेज्वास्वी  राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत कवि के रूप में जाने जाते थे। उनकी कविताओं में छायावादी युग का प्रभाव होने के कारण शृंगार के भी प्रमाण मिलते हैं। दिनकर के पिता एक  किसान थे। दिनकर दो वर्ष के थे, जब उनके पिता का देहांत  हो गया। अतः  दिनकर और उनके भाई-बहनों का पालन-पोषण उनकी विधवा माता ने किया। दिनकर का बचपन और कैशोर्य देहात में बीता, जहाँ दूर तक फैले खेतों की हरियाली, बांसों के झुरमुट, आमों के बग़ीचे और कांस के विस्तार थे। प्रकृति की इस सुषमा का प्रभाव दिनकर के मन में बस गया, पर शायद इसीलिए वास्तविक जीवन की कठोरताओं का भी अधिक गहरा प्रभाव पड़ा
  दिनकर के प्रथम तीन काव्य-संग्रह प्रमुख हैं– ‘रेणुका’ (1935 ई.), ‘हुंकार’ (1938 ई.) और ‘रसवन्ती’ (1939 ई.) उनके आरम्भिक आत्म मंथन के युग की रचनाएँ हैं। इनमें दिनकर का कवि अपने व्यक्ति परक, सौन्दर्यान्वेषी मन और सामाजिक चेतना से उत्तम बुद्धि के परस्पर संघर्ष का तटस्थ द्रष्टा नहीं, दोनों के बीच से कोई राह निकालने की चेष्टा में संलग्न साधक के रूप में मिलता है।

रेणुका – में अतीत के गौरव के प्रति कवि का सहज आदर और आकर्षण परिलक्षित होता है। पर साथ ही वर्तमान परिवेश की नीरसता से त्रस्त मन की वेदना का परिचय भी मिलता है।

हुंकार – में कवि अतीत के गौरव-गान की अपेक्षा वर्तमान दैत्य के प्रति आक्रोश प्रदर्शन की ओर अधिक उन्मुख जान पड़ता है।

रसवन्ती - में कवि की सौन्दर्यान्वेषी वृत्ति काव्यमयी हो जाती है पर यह अन्धेरे में ध्येय सौन्दर्य का अन्वेषण नहीं, उजाले में ज्ञेय सौन्दर्य का आराधन है।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने हिंदी साहित्य में न सिर्फ वीर रस के काव्य को एक नयी ऊंचाई दी, बल्कि अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का भी सृजन किया.

इसकी एक मिसाल 70 के दशक में संपूर्ण क्रांति के दौर में मिलती है. दिल्ली के रामलीला मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने हजारों लोगों के समक्ष दिनकर की पंक्ति ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ का उद्घोष करके तत्कालीन सरकार के खिलाफ विद्रोह का शंखनाद किया था. साभार (http://bharatdiscovery.org)

फणीश्वरनाथ रेणु Phanishwar Nath 'Renu'


फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म  औराडी हिंगन्ना, जिला पूर्णियां, बिहार में , 4 मार्च 1921 को हुआ। वे हमेशा आजीवन शोषण और दमन के विरूद्ध संधर्षरत रहे। इसी प्रसंग में सोशलिस्ट पार्टी से जा जुड़े व राजनीति में सक्रिय भागीदारी की। 1942 के भारत-छोड़ो आंन्दोलन में सक्रिय भाग लिया। 1950 में नेपाली दमनकारी रणसत्ता के विरूद्ध सशस्त्र क्रांति के सूत्रधार रहे। 1954 में 'मैला आँचल' उपन्यास प्रकाशित हुआ तत्पश्चात् हिन्दी के कथाकार के रूप में अभूतपूर्व प्रतिष्ठा मिली। जे० पी० आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी की और सत्ता द्वारा दमन के विरोध में पद्मश्री का त्याग कर दिया। हिन्दी आंचलिक कथा लेखन में सर्वश्रेष्ठ माने जाते है | 11 अप्रैल, 1977 को पटना में अंतिम सांस ली।

साहित्य सृजन:
कहानी संग्रह: ठुमरी, अग्निख़ोर, आदिम रात्रि की महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप, अच्छे आदमी।
उपन्यास: मैला आंचल, परती परिकथा, दीर्घतया, कलंक -मुक्ति, जुलूस, कितने चौराहे, पल्टू बाबू रोड।
संस्मरण: ऋणजल--धनजल, वन तुलसी की गन्ध, श्रुत अश्रुत पूर्व।
रिपोर्ताज: नेपाली क्रांति कथा। कहानी ‘मारे गये गुलफाम' पर बहुचर्चित हिन्दी फिल्म ‘तीसरी कसम' बनी जिसे अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए। (साभार bharatdarshan.co.nz)

 

गोपाल सिंह नेपाली - Gopal Singh Nepali

गोपाल सिंह नेपाली (Gopal Singh Nepali) का  जन्म 11 अगस्त 1911 को  बेतिया, पश्चिमी चम्पारन (बिहार) में  हुआ। गोपाल सिंह नेपाली की काव्य प्रतिभा बचपन में ही दिखाई देने लगी थी। गोपाल सिंह नेपाली को हिन्दी के गीतकारों में विशेष स्थान प्राप्त है, इसीलिए उन्हें, 'गीतों का राजकुमार' कहा गया है। हिंदी  फिल्मों के लगभग 400  गाने उनके द्वारा लिखे गये है  |
एक बार एक दुकानदार ने बच्चा समझकर उन्हें पुराना कार्बन दे दिया जिस पर उन्होंने वह कार्बन लौटाते हुए दुकानदार से कहा- 'इसके लिए माफ कीजिएगा गोपाल पर, सड़ियल दिया है आपने कार्बन निकालकर'। उनकी इस कविता को सुनकर दुकानदार काफी शर्मिंदा हुआ और उसने उन्हें नया कार्बन निकालकर दे दिया।  कलम की स्वाधीनता के लिए आजीवन संघर्षरत रहे 'गीतों के राजकुमार' गोपाल सिंह नेपाली लहरों की धारा के विपरीत चलकर हिन्दी साहित्य, पत्रकारिता और फिल्म उद्योग में ऊंचा स्थान हासिल करने वाले छायावादोत्तर काल के विशिष्ट कवि और गीतकार थे।

युवावस्था में नेपालीजी के गीतों की लोकप्रियता से प्रभावित होकर उन्हें आदर के साथ कवि सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा। उस दौरान एक कवि सम्मेलन में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' उनके एक गीत को सुनकर गद्गनद् हो गए। वह गीत था-

सुनहरी सुबह नेपाल की, ढलती शाम बंगाल की
कर दे फीका रंग चुनरी का, दोपहरी नैनीताल की
क्या दरस-परस की बात यहां, जहां पत्थर में भगवान है
यह मेरा हिन्दुस्तान है, यह मेरा हिन्दुस्तान है.
..

साहित्य की लगभग सभी विधाओं में पारंगत नेपाली की पहली कविता 'भारत गगन के जगमग सितारे' 1930 में रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा संपादित बाल पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। पत्रकार के रूप में उन्होंने कम से कम 4 हिन्दी पत्रिकाओं- रतलाम टाइम्स, चित्रपट, सुधा और योगी का संपादन किया।
नेपालीजी के गीतों की उस दौर में धूम मची हुई थी लेकिन उनकी माली हालत खराब थी। वे चाहते तो नेपाल में उनके लिए सम्मानजनक व्यवस्था हो सकती थी, क्योंकि उनकी पत्नी नेपाल के राजपुरोहित के परिवार से ताल्लुक रखती थीं लेकिन उन्होंने बेतिया में ही रहने का निश्चय किया।  वर्ष 1944 में मुंबई में उनकी मुलाकात फिल्मीस्तान के मालिक सेठ तुलाराम जालान से हुई जिन्होंने नेपाली को 200 रुपए प्रतिमाह पर गीतकार के रूप में 4 साल के लिए अनुबंधित कर लिया। फिल्मीस्तान के बैनर तले बनी ऐतिहासिक फिल्म 'मजदूर' के लिए नेपाली ने सर्वप्रथम गीत लिखे। फिल्मों में बतौर गीतकार नेपालीजी 1944 से 1962 तक गीत लेखन करते रहे। इस दौरान उन्होंने 60 से अधिक फिल्मों के लिए लगभग 400 से अधिक गीत लिखे। दिलचस्प बात यह है कि इनमें से अधिकतर गीतों की धुनें भी खुद उन्होंने बनाईं। नेपालीजी ने हिमालय फिल्म्स और नेपाली पिक्चर्स फिल्म कंपनी की स्थापना कर नजराना (1949), सनसनी (1951) और खुशबू (1955) जैसी कुछ फिल्मों का निर्माण भी किया।  नेपालीजी को जीते-जी वह सम्मान नहीं मिल सका जिसके वे हकदार थे। अपनी इस भावना को उन्होंने कविता में इस तरह उतारा था-

अफसोस नहीं हमको जीवन में कुछ कर न सके
झोलियां किसी की भर न सके, संताप किसी का हर न सके
अपने प्रति सच्चा रहने का जीवनभर हमने यत्न किया
देखा-देखी हम जी न सके, देखा-देखी हम मर न सके।

17 अप्रैल 1963 को अपने जीवन के अंतिम कवि सम्मेलन से कविता पाठ करके लौटते समय बिहार के भागलपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर 2 पर गोपालसिंह नेपाली का अचानक निधन हो गया।
साभार Webdunia Hindi

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