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पुराणक चाशनी ( Puranak Chashni ) - खट्टर ककाक तरंग - हरिमोहन झा |

पुराणक चाशनी

(खट्टर ककाक तरंग)

लेखक : हरिमोहन झा
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खट्टर कका पुराण देखैत रहथि । हमरा देखि पुछलैन्ह – हौ, कोम्हर जाइ छह ?

हम कहलिऎन्ह - ब्रह्मस्थान पर भागवत भऽ रहल छैक ।

खट्टर कका बजलाह - तखन महा अनर्थ भऽ रहल छैक ।

हम - से किऎक, खट्टर कका ।

खट्टर कका – हौ, भागवत सुनने स्त्रीगण दूरि भऽ जाएत । चीर-हरण ओ रासलीला क कथा सूनि छौड़ा-छौड़ी उमता जाएत । नवयुवक सभ राति में सीटी बजबैत चलताह । नवयुवती सभ घाटे बाटे बौआएल भेल फिरतीह । यमुना ओ वृन्दावन नहिं छैक तैं की ? पोखरि ओ आमक गाछी त छैक । हौ, बाबू, हम गाम में भागवत नहि होमय देबौह ।

हम - खट्टर कक, अहाँ त हॅंसी करैत छी ।

खट्टर कका – हॅंसी की करैत छिऔह ? देखह ,

 

ता वार्यमाणाः पितृभिः पतिभिर्भ्रातृभिस्तथा ।
कृष्णं गोपांगनाः रात्रौ रमयन्ति रतिप्रियाः ॥

 

बाप,भाइ, स्वामी, मने करैत रहि जाथिन्ह ता गोपी लोकनि रास करक हेतु बहरा जाथि । कहह ई कोनो नीक बात थीक ? जौं गामक बेटी-पुतोहु एहिना करय लागि जाय , तखन कोन उपाय हैत ?

हम - खट्टर कका, किछु विद्वानक कथ्य छैन्ह जे चीरहरण ओ रासलीला क आध्यात्मिक तात्पर्य छैक ।

खट्टर कका भङ्घोटना पटकैत बजलाह – हमरा परतारह जुनि । ई केश रौद में नहि पाकल अछि । हम अठारहो पुराण धांगि गेल छी एखनो ब्रह्मवैवर्तपुराण आगाँ में राखल अछि ।

हम - एहि में त केवल ब्रह्म क चर्चा हेतैन्ह ?

खट्टर कका भभा कऽ हॅंसि पड़लाह । कृष्ण जन्म-खंड उनटबैत बजलाह - अगुताइ त ने छौह ? तखन बैसि जाह । चीरहरणक वर्णन देखह । गोपी सभ वस्त्र उतारि यमुना-जल में स्नान कय रहलि छथि । भगवान सभक वस्त्र हरण कय कदम्ब वृक्ष पर सॅं कहै छथिन्ह -

भो भो गोपालिकाः नग्नाः इदानीं किं करिष्यथ ?

ऎ गोपीगण ? आब अहाँ लोकनि की करैत जायब ?

तखन राधा सखी सब कैं आज्ञा दैत छथि जे 'चलू, एहि छैला कैं बान्हि कऽ लऽ अनै जाउ' । बस,

 

सर्वा राधाज्ञया तूर्णं समुत्थाय जलात क्रुधा ।
प्रजग्मुर्गोपिकाः नग्ना योनिमाच्छाद्य पाणिना ॥

 

युवतीक दल हाथ सॅं गुप्तांग कैं झॅंपने चलल हुनका पकड़य! परन्तु वृन्दावन विहारी त एहि फौजक सामना करय लेल तैयारे छलाह । रभसैत कहलथिन्ह-

युष्माकमीश्वरी राधा किं करिष्यति मेऽधुना ।

अहाँ सभक 'लीडरानी' राधारानी हमर की कऽ लैत छथि से देखैत छिऎन्ह ! ई सुनितहि राधा क क्रोध काम में परिणत भऽ गेलैन्ह ।

श्रुत्वा जहास सा राधा बभूव कामपीडिता ।

और तकरा बाद त सभ गोपिका मिलि कय -

नग्नाः क्रीड़ाभिरासक्ताः श्रीकृष्णार्पितमानसाः ।

भगवानक इच्छा पूर्ण भेलैन्ह । गोपी सभक इच्छा पूर्ण भेलैन्ह । और कथा सुननिहार युवती लोकनिक इच्छा सेहो पूर्ण होउन्ह, ताहि हेतु पुराणकर्त्ता आशीर्वाद दैत छथिन्ह -

 

भक्त्या कुमारी स्तोत्रं च श्रुणुयात् वत्सरं यदि ।
श्रीकृष्णसदृशं कान्तं गुणवन्तं लभेत् ध्रुवम् ॥

 

अर्थात यदि कुमारी लोकनि भक्तिपूर्वक सालो भरि ई स्तोत्र सुनथि त निश्चय श्रीकृष्ण सन रसिया केओ भेटिए जइथिन्ह !

हम - खट्टर कका, रासलीलाक किछु दोसरे अभिप्राय हैतैक ।

खट्टर कका बजलाह - तखन कनेक ओकरो चाशनी चाखि लैह ।

 

पुनः प्रजग्मुस्ता मत्ताः सुन्दरं रासमंडलम् ।
पूर्णेन्दुचन्द्रिकायुक्तं रतियोग्यं सुनिर्जनम् ॥
काश्चिदूचुरहो कृष्ण स्वक्रोडेऽस्मांश्च कुर्विति ।
गृहित्वा श्रीहरेः स्कंधमारुरोह च काचन ॥
काचिज्जग्राह मुरलीं बलादाकृष्य माधवम् ।
जहार पीतवसनं कृत्वा नग्नं च कामिनी ॥
उवाच कश्चित् प्रेम्णा तं गंडयोः स्तनयोर्मम ।
नाना-चित्र-विचित्राभ्यां कुरु पत्राबलीमिति ॥

 

पुर्णिमा क राति । यमुना क तीर । एकान्त स्थान । गोपीगण निःसंकोच भय केलि करैत छथि । केओ भगवानक मुरली छीनि लैत छथिन्ह । केओ पीताम्बर फोलि लैत छथिन्ह। केओ फानि कऽ कोर में चढि जाइत छथिन्ह । केओ छड़पि कऽ कन्हा पर सवार भऽ जाइ छथिन्ह । जे हमरा गाल में दाँत काटू । केओ कहै छथिन्ह जे छाती पर चेन्ह कऽ दिय ।``````हौ, ई पुराणकार लोकनि रसिक शिरोमणि छलाह ।

खट्टर कका आगाँ बाचय लगलाह -

 

काचित कामातुरा कृष्णं बलादाकृष्य कौतुलम ।
हस्ताद्वंशीं निजग्राह वसनं च चकर्ष ह ॥
काचित कामप्रमत्ता च नग्नं कृत्वा तु माधवम ।
निजग्राह पीतवस्त्रं परिहास्य पुनर्ददौ ॥
चुचुम्ब गंडे बिम्बोष्ठे समाश्लिष्य पुनः पुनः ।
सस्मितं सकटाक्षं च मुखचन्द्रं स्तनोन्नतम ॥
कांचित् कांचित् समाकृष्य नग्नां कृत्वा तु कामतः ।
काचिच्छ्रोणिं सुअललितां दर्शयामास कामतः ॥

 

हम - खट्टर कका, कनेक अर्थ बुझा कऽ कहिऔक ।

खट्टर कका – हौ, की कहिऔह ? युवती-गण कामोन्मत्ता भय लज्जा छोड़ि दैत छथि ! केओ भगवान कैं विवस्त्र कय अपना दिस खिचि लैत छथिन्ह । केओ गाल ओ ठोर में चुम्मा लैत छथिन्ह । केओ अपना छाती में सटा लैत छथिन्ह। केओ अपना सखी कैं नग्न कय भगवान पर ठेलि दैत छथिन्ह ।```हौ, गामक छौड़ी सभ एहन कथा सुनति त मर्यादा क बंधन राखति ?

हम - खट्टर कका, भगवान युवती सभ कैं डँटलथिन्ह किऎक नहिं ?

खट्टर कका बजलाह – हौ, डँटने होइतैन्ह की ? मदमत्ता युवती ओ नदीक धार जखन एक बेर बाँध तोरि दैत अछि तखन ओकर प्रबाह के रोकि सकैत अछि ! भगवानो त अवग्रह में पड़ि गेलाह । ई एकसर बालक, ओम्हर ओतेक रासे तरुणी ! सभक इच्छा एके बेर कोना पूर्ण होउन्ह ! अगत्या भगवान कैं नाना रुप धारण कय सभ सॅं मंडलाकार रमण करय पड़लैन्ह ।

 

कामिनीनां मनोहारि नानामुर्तिं विधाय च ।
रेमे गोपांगनाभिश्च सुरम्ये रासमंडले ॥
अगैंरंगानि प्रत्यंगैंः प्रत्यंगानि स्मरातुरः ।
चकाराश्लेषणंतत्र कामुकीनां सुखावहम ॥

 

हौ, हमरा त बुझि पड़ै अछि जे एही रास-चक्र सॅं भैरवी चक्र क उत्पत्ति भेल अछि ।

 

हम - खट्टर कका, कतेको संप्रदाय रासलीलाक दोसरे व्याख्या करैत छथि । खट्टर कका व्यंग्यपूर्वक बजलाह – हॅं । जेना वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति । तहिना पौराणिको व्यभिचारो व्यभिचारो न भवति । हौ, तोरा बुझि पड़ैत छौह जे रासक्रीड़ा में योगाभ्यास होइत छलैक ?

हम - परन्तु योगीश्वर कृष्ण स्वयं त अविचलित रहैत छलाह ?

खट्टर कका बजलाह - तखन देखह जे योगीश्वर केहन भोगीश्वर छलाह !

 

कृष्ण कररुहाघातं ददौ तासां कुचोपरि ।
श्रोणीदेशे सुकठिने नखचित्रं चकार ह ॥
आलिंगनं नवविधं चुम्बनाष्टविधं मुदा ।
श्रृगारं षोडशविधं चकार रसिकेश्वरः ॥

 

आब एहि सॅं बेसी की होइ छैक ?

हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका, ओ प्रेम शारीरिक नहिं छलैन्ह ।

खट्टर कका बजलाह – तों ओना नहि बुझबह । तखन और खोलि क सुनह-

 

जगाम राधया सार्द्ध रसिको रतिमन्दिरम् ।
सुष्वाप राधया सार्द्ध रतितल्पे मनोहरे ॥
कृष्णो राधा समाकृष्य वासयामास वक्षसि ।
श्रोणी-देशे च स्तनयोर्नखच्छिद्रं चकार ह ॥

 

आबो मन में संदेह छौह ?

हम - परन्तु......

खट्टर कका बजलाह – तोरा एखन धरि मन नहि भरलौह अछि। तखन और सुनह । स्थलक्रीड़ाक बाद कोना जलक्रीड़ा होइ छैन्ह !

 

स्थले रतिरसं कृत्वा जगाम यमुनाजलम ।
वस्त्रं जग्राह तस्याश्च सा च नग्ना बभूव ह ॥
तां च नग्नां समाश्लिष्य निममज्ज जले हरिः।
सा वेगेन समुत्थाय बलाज्जग्राह माधवम् ॥
उत्थाय माधवः शीघ्रं तां गृहित्वा प्रहस्य च ।
कृत्वा वक्षसि नग्नां च चुचुम्ब च पुनः पुनः ॥

 

हौ, एहन उन्मत्त विहार होइ अछि । और तथापि तोरा होइ छौह जे ओ भोग नहि, योग छल । हाय रे बुद्धि !

हौ, एहन उन्मत्त विहार होइ अछि । और तथापि तोरा होइ छौह जे ओ भोग नहि, योग छल । हाय रे बुद्धि !

हम - परन्तु........

खट्टर कका डँटैत बजलाह - राउत बुझाबय से मर्द । एतबा रासे कहि गेलि औह तथापि तों परन्तु लगबितहि छह ? तखन और नीक जकाँ कान खोलि क सुनि लैह -

 

माधवो राधया सार्द्ध मन्तर्धानं चकार ह ।
अतीव निर्जने स्थाने भृशं रेमे तया सह ।
विलुप्तवेशां कामार्तां नग्नां शिथिल-कुन्तलाम् ।
गंडयोः स्तनयोश्चित्रं चकार मधुसूदनः ।
एवं रेमे कौतुकेन कामात् त्रिंशत् दिवानिशि ।
तथापि मानसं पूर्णं न किंचित् बभूव ह ।

 

लगातार तीस दिन तीस राति धरि रमण होइत रहलैन्ह, तथापि दूनू गोटाक मन नहिं भरलैन्ह । ओ दृश्य देखबाक हेतु आकाश में देवी-देवताक मेला लागि गेलैन्ह । देवता लोकनि मुग्ध भऽ गेलाह । देवी लोकनि सौतिया डाह सॅं जरि गेलीह । पुराणकर्त्ता ओहि पर टिप्पनी करैत छथि -

 

न कामिनीनां कामश्च श्रृंगारेण निवर्तते ।
अधिकं वर्द्धते शश्वत यथाग्निर्धित-धारया ॥

 

जेना घृतक धार सॅं अग्निक ज्वाला शान्त नहिं होइ छैन्ह, तहिना संभोग सॅं कामिनीक तृप्ति नहिं होइ छैन्ह ......आबो तोहर संदेह दूर भेलौह कि नहिं ?

हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका, पुराण कर्त्ता लोकनि राधाकृष्णक एहन नग्न चित्रण किएक कैने छथिन्ह ?

खट्टर कका बजलाह – हौ, एहन एहन वर्णन नहिं दितऽथिन्ह त श्रोतागण कैं रस कोना भेटितैन्ह ? तैं सभ देवी-देवता क संभोग-वर्णन छैन्ह । चाहे राधा- कृष्ण होथि वा शिव-पार्वती । एही द्वारे पुराणक एतेक प्रचार छैक ।

हम कहलिऎन्ह - खट्टर कक, शिव-पार्वती क एना वर्णन नहिं हैतैन्ह ।

खट्टर कका विहुँसैत बजलाह - तखन 'गणपति-खंड' देखह जे कोना वर्णन छैन्ह -

 

तां गृहीत्वा महादेवो जगाम निर्जनं वनम् ।
शय्यां रतिकरीं कृत्वा पुष्पचंदन-चर्चिताम् ।
स रेमे नर्मदा-तीरे पुष्पोद्याने तया सह ।
सहस्रवर्षं - पर्यंन्तं देवमानेन नारद ! ।
तयोर्बभूव श्रृंगारं विपरीतादिकं परम् ।
रतौ रतश्च निश्चेष्टो न योगी विरराम ह ॥

 

देवताक वर्ष सॅं सहस्र वर्ष धरि लगातार शिव-पार्वतीक रमण होइत रहलैन्ह! तथापि शिवजी स्खलित नहिं भेलाह । तखन विष्णु भगवान कैं चिन्ता भेलैन्ह। ओ ब्रह्मा कैं आज्ञा देलथिन्ह -

 

येनोपायेन तद्वीर्यं भूमौ पतति निश्चितम् ।
तत् कुरुष्व प्रयत्नेन सार्द्धं देवगणेन च ॥

 

“अहाँ देवता सभक संग जाउ और तेहन उपाय करु जाहि सॅं शिवजीक धातु स्खलित भऽ जाइन्ह ।" तखन इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, पवन आदि देवता ओहिठाम जा शिवजीक स्तुति करय लगलथिन्ह। एहि सॅं शिवजीक रति समाधि भंग भऽ गेलैन्ह ।

 

विजहौ सुख – संभोगं कंठलग्नां च पार्वतीम् ।
उतिष्ठतो महेशस्य त्रस्तस्य लज्जितस्य च ।
भूमौ पपात तद्वीर्यं ततः स्कन्दो बभूव ह ॥

 

“शिवजी लज्जित भय पार्वती कैं छोड़ि देलथिन्ह और जहिना उठय लगलाह कि नीचा भूमि पर धातु खसि पड़लैन्ह । ताहि सॅं कार्तिकेय प्रकट भऽ गेलाह।'

देवता लोकनि पार्वतीक भय सॅं पड़ैलाह तथापि पार्वती शाप दइए देलथिन्ह । -

अद्य प्रभृति ते देवा व्यर्थवीर्या भवन्त्वुति ।

“हे देवतागण ! आइ सॅं अहाँ लोकनिक वीर्य व्यर्थ भऽ जाएत ।"` ` ` ` ` हौ , स्वाइत देवता लोकनि असुर सभ सॅं हारैत छलाह !

हम पुछलिऎन्ह – पार्वती रुष्ट किऎक भेलथिन्ह ?

खट्टर कका क्षुब्ध होइत बजलाह – तोरा सात वर्ष विवाह भेना भेलौह । तथापि एतबा अनुभव नहि भेल छौह ? देखह पार्वती स्वयं ई रहस्य महादेव कैं कहैत छथिन्ह -

 

रतिभंगो दुःखमेकं द्वितीयं वीर्यपातनम् ।
रतिभंगेन यद्दुःखं तत्समं नास्ति च स्त्रियाः ॥

 

अर्थात, “जौं रति कार्य क बीच में बाधा परि जाइक किंवा पुरुष पहिनहि स्खलित भऽ जाइक, त एहि सॅं बाढि दुःख स्त्रीक हेतु दोसर नहिं भऽ सकैत छैक ।"

तखन महादेवजी बहुत तरहें हुनका मनबैत छ्थिन्ह और पुनः मिलन होइछ।

 

रहसि स्वामिना सार्द्धं सुष्वाप परश्मेवरी ।
कैलासस्यैकदेशे च रम्ये चन्दनकानने ॥

 

परन्तु-

 

रेतः पतनकाले च स विष्णुर्विष्णुमायया ।
विधाय विप्ररूपं तु आजगाम रतेर्गृहम् ॥

 

जहाँ द्रवित हैबाक बेर अबै छैन्ह कि विष्णु भगवान विप्रक रूप धारण कय ओहिठाम पहुँचि जाइ छथिन्ह और कहै छथिन्ह जे हम सात साँझक उपासल छी; पारण कराउ।' ई सुनि -

उत्तस्थौ पार्वती त्रस्ता सूक्ष्मवस्त्रं विधाय च

पार्वती झटपट देह पर नूआ रखैत उठि जाइ छथि । और -

पपात वीर्य शय्यायां न योनौ प्रकृतेस्तदा ।

शिवजीक धातु ओछाओन पर चुबि जाइत छैन्ह । ओही सॅं गणेशक जन्म छैन्ह ।

हमरा मुँह तकैत देखि खट्टर कका बजलाह - एहि कथाक तात्पर्य बुझलहौक ? जौं संभोगो काल ब्राह्मण आवि जाथि त चटपट उठि कऽ पहिने हुनका भोजन कराबक चाही । धन्य छथि ई पेटू देवता !

खट्टर कका मुसकुरा उठलाह । बजलाह - गणेश कैं लोक विघ्नेश कहौन्ह । परन्तु हुनक अपने जीवन विघ्न सॅं भरल छैन्ह । एक त गर्भाधाने में विघ्न भऽ गेलैन्ह । दोसर जनमितहिं शनिक दृष्टि पड़ि गेलैन्ह । मस्तक कटा गेलैन्ह त गजानन भऽ गेलाह । एकटा दाँत टूटि गेलैन्ह त एकदंत भऽ गेलाह ।

हम – एकटा दाँत कोना टूटि गेलैन्ह ?

खट्टर कका बजलाह – हौ, एक बेर शिव-पार्वती एकान्त में रहथि । गणेश द्वारपाल भऽ कऽ ठाढ रहथिन्ह। ओहि बीच में परशुराम शिव-पार्वती कैं प्रणाम करक हेतु पहुँचि गेलथिन्ह । गणेश रोकि देलथिन्ह जे -

क्षणं तिष्ठाऽधुना भ्रातः ईश्वरः सुरतोन्मुखः ।

“औ भाइ ! एखन कने थम्हि जाउ; ओ लोकनि एखन शयनागार में छथि ।" परन्तु परशुराम कैं एतबा धैर्य कहाँ ! ओ फरुसा लऽ कऽ गणेश पर छुटलाह। आब दूनू में मल्ल-युद्ध होमय लगलैन्ह । गणेशजी हुनका सूँढ में लपेटि लेलथिन्ह और लगलथिन्ह घुमाबय । तखन परशुराम खिसिया कऽ एक फरुसा मार लथिन्ह जाहि सॅं गणेशक एकटा दाँत टूटि गेलैन्ह । ओ दाँत जे टूटि कऽ खसल तकरा शब्द सॅं संपूर्ण कैलाश डोलि उठल। ताहि सॅं शिव-पार्वती क रतिबंध छूटि गेलैन्ह । पार्वती रोसा कऽ बहरैलीह और परसुराम कैं मारय छुटलीह । ई देखि परसुराम सटक सीताराम भऽ गेलाह, और लगथिन्ह स्तुति करय जे-

 

त्रिपुरस्य महायुद्धे सरथे पतिते शिवे ।
यां तुष्टवुः सुरा सर्वे तां दुर्गां प्रणमाम्यहम ॥

 

अर्थात "हे दुर्गे ! जखन त्रिपुर सॅं युद्ध करैत महादेव रथ सहित खसि पड़लाह, तखन देवता सभ अहींक आराधना कैलन्हि ।" ```हौ, बूझह त ई लोकनि भारी मौगा छलाह ।

हम - खट्टर कका, पुराण में एहन एहन बात हेतैक से हमरा नहिं बूझल छल।

खट्टर कका - तोरे किऎक ? बहुतो गोटा कैं नहिं बुझल हैतैन्ह । ब्रह्मा किऎक अपुज्य भेलाह से जनैत छह ?

हम – नहि ।

खट्टर कका पुराण उनटबैत बजलाह - तखन सुनह । एक बेर मोहिनी यौवन क मद सॅं मत्त भय ब्रह्मा सॅं संभोग-याचना कैलथिन्ह । वृद्ध ब्रह्मा अपन असमर्थता प्रकट करैत कहलथिन्ह जे कोनो रसिक युवा कैं पकड़ू । बारंबार उसकौलो पर ब्रह्मा तैयार नहिं भऽ सकलाह । तखन मोहिनी हुनका धिक्कारय लगलथिन्ह जे -

 

इंगितेनैव नारीणां सद्यो मत्तं भवेन्मनः ।
करोत्याकृष्य़ संभोगं यः स एवोत्तमो विभो ॥
ज्ञात्वा स्फुटमभिप्रायं नार्यां संप्रेषितो हि यः ।
पश्चात करोति संभोगं पुरुषः स च मध्यमः ॥
पुनः पुनः प्रेषितश्च स्त्रिया कामार्त्तया च य ।
तथा न लिप्तो रहसि स क्लीवो न पुमानहो ॥

 

अर्थात उत्तम पुरुष ओ थीक जे बिनु कहने , नारीक मन पाबि, अपना लग खींचि , रमण करय । मध्यम पुरुष ओ थीक जे नारीक कहला पर रमण करय। और जे बारंबार कामातुरा नारी द्वारा उसकौलो पर रमण नहि करय से पुरुष नहिं नपुंसक थीक ।

परन्तु एतेक धुसैलो उत्तर ब्रह्मा कैं उत्तेजना नहिं भेलैन्ह । तखन मोहिनी क्रोध सॅं उन्मत्त भय शाप देलथिन्ह -

 

अये ब्रह्मन् जगन्नाथ वेदकर्त्ता त्वमेव च।
स्वकन्यायां यत स्पृहा स कथं हससि नर्त्तकीम ॥
दासीतुल्यां विनीतां च दैवेन शरणागतम ।
यतो हससि गर्वेण ततोऽपुज्यो भवाऽचिरम ॥

 

अर्थात् 'हे ब्रह्मा ! अपना कन्याक संग त विचारे नहिं रहल और अहाँ हमरा लग धर्मात्मा बनै छी ! जाउ, अहाँ आइ दिन सॅं अपुज्य भऽ गेलहुँ ।'

आब ब्रह्माक चारु मुँह म्लान भऽ गेलैन्ह । दौरल दौरल विष्णुलोक गेलाह । ओतय विष्णुओ हुनके डाँटय लगलथिन्ह -

 

यदि कामवती दैवात् कामिनी समुपस्थिता ।
स्वयं रहसि कामार्त्ता न सा त्याज्या जितेन्द्रियै ॥
ध्रुवं भवेत् सोऽपराधी तस्या अद्यावमानतः ।

 

“यदि संयोगवश कामिनी एकान्त में आबि स्वयं उपस्थित भऽ जाय त ओकरा कथमपि नहिं त्याग करी । जे कामर्त्ता नारी क एहन अवज्ञा करैत अछि से निश्चय अपराधी थीक ।" लक्ष्मी सेहो ब्रह्मा पर छुटलथिन्ह -

 

ब्रह्मा कथं न जग्राह वेश्यां स्वयमुपस्थिताम ।
उपस्थितायास्त्यागे च महान दोषो हि योषितः ॥

 

“जखन वेश्या स्वयं मुँह खोलि कऽ प्रणय प्रार्थना कैलकैन्ह तखन ब्रह्मा किएक ने इच्छा-पुर्ति कैलथिन्ह ? ई नारी क भारी अपमान भेल ।

बेचारे ब्रह्मा बहुत कानय-कलपय लगलाह । तखन जा कऽ कोनहुना उद्धार भेलैन्ह जे -

 

तव मंत्रं न गृह्णन्ति केऽपि वेश्याभिशापतः।
त्वदन्य-देव-पूजायां तव पूजा भविष्यति ॥

 

“वेश्याक शाप सॅं अहाँक मंत्र त केओ नहि लेत । तखन जाउ , आन आन देवताक पूजाक संग अहूँक पूजा भऽ जाएत ।````” तैं देखै छह नहिं , डाली झाड़ि कऽ ब्रह्माक पूजा होइ छैन्ह ।

हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका, पुराण-कर्त्ता लोकनि ब्रह्मा क एहन दुर्दशा किऎक कैने छथिन्ह ।

ख० – हौ, एहू सॅं वेसी दुर्दशा कैने छथिन्ह । स्वयं अपना कन्या सॅं अपवाद लगा देने छथिन्ह ?

तां संभोक्तुं मनश्चक्रे सा दुद्राव भिया सती ।

ब्रह्मा कन्या क पाछाँ दौड़लाह । ओ भयभीत भऽ पड़ैलीह । तखन ॠषिगण ब्रह्मा कैं गंजन करय लगथिन्ह -

 

त्वं स्वयं वेदकर्त्ता च कन्या संभोक्तुमिच्छसि।
अस्माकं दूरतो दूरं गच्छ कामार्त्तमान ॥

 

ब्रह्मा ग्लानि सॅं आत्महत्या करऽ लेल उद्यत भऽ गेलाह ।

 

ब्रह्मा शरीरं संत्यक्तुं व्रीडया च समुद्यतः ।

 

आइकाल्हि ककरो विषय में एना लिखितऽथिन्ह त तुरन्त मानहानि कऽ मोकदमा चला दितैन्ह परन्तु देवतागण त मुक छलाह । ब्रह्मा कैं चारिटा मुँहे रहने की हैतैन्ह ?

हम - खट्टर कका, ब्रह्मवैवर्त पुराण में ब्रह्माक एहन दुर्दशा ?

खट्टर कका बजलाह – हौ, तुलसीदल कोन छोट, कोन पैघ ? सभ पुराण में त देवताक तेहने दुर्दशा देखैत छिऎन्ह । ब्रह्मपुराणे में ब्र्ह्मा कै कोन महत्व देल गेलैन्ह अछि ? बेचारे कैं गौरीक विवाह में दुर्गति कऽ देल गेल छैन्ह ।

हम - से कि ?

खट्टर कका – देखह, ब्रह्मा स्वयं अपना मुँह सॅं की कहैत छथि !

 

तामदर्शमहं तत्र होमं कुर्वन् हरान्तिके
दृष्टेऽगुंष्ठे दुष्टबुद्ध्या वीर्य सुस्राव मे तदा
लज्जया कलुषीभूतः स्कन्नं वीर्यमचूर्णयम
मद्वीर्यात चूर्णितात् सुक्ष्मात् बाल्यखिल्यास्तु जज्ञिरे ॥

 

भवार्थ ई जे ब्रह्मा महादेवक समीप बैसि होम करैत रहथि । ताहि काल गौरी पर दृष्टि पड़ि गेने स्खलन भऽ गेलैन्ह । तखन लाजे कठुआ गेलाह और चुपचाप चुटकी सॅं ओकरा मलि देलथिन्ह । ताहि वीर्यकण सॅं बाल्यखिल्य मुनिक जन्म भेलैन्ह ।

हम क्षुब्ध होइत कहलिऎन्ह - खट्टर कका, पुराणकर्ता कैं एहन एहन बात कोना लिखल गेलैन्ह ?

खट्टर कका बजलाह – हौ, ओ लोकनि निर्लज्ज छलाह । जहाँ देखू, ‘स वीर्य प्रमुमोच ह ।' ‘तद्विर्यं निपपात ह' । देवताक वीर्य की भेलैन्ह ? शीतल प्रसाद भेलैन्ह । एक चुरु चुआ देलन्हि । से जत्तहि पौलन्हि, तत्तहि । घृत आँच देखि कऽ पिघलैत अछि, ओ आँचर देखि कऽ पिघलि जाइत छलैन्ह। कतहु मोहिनी पर, कतहु वृन्दा पर , कतहु गौरी पर, कतहु हुनका सखी पर !

हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका, हमरा नहिं बूझल छल जे पुराण मे एतेक अश्लीलता भरल हैतैक ।

खट्टर कका बजलाह – हौ, अश्लीलता त तेहन तेहन छैक जे कहबा सुनबा योग्य नहिं , देखह पद्मपुराण में केहन वर्णन छैक ! जालंधर शंकरक छद्मवेश बना गौरी क समीप जाइ अछि । गौरी अपना सखी कैं सिखा पढा कऽ ओकरा लग पठबैत छथिन्ह । जालंधर हुनका पकड़ि लैत छैन्ह और लगै छैन्ह भोग करय ।

 

ततो जालंधरः सद्यो वीर्य सप्रमुमोच ह ।
अल्पेन्द्रियश्च संयातो वेगतः कुरुनन्दतः ॥
तदा हि प्रोहितो दैत्यः न त्वं रुद्रो भविष्य़ति ।
अल्पवीर्योऽधमाचारो नाहं गौरी हि तत्सखी ॥

 

थोड़बे काल जालन्धर स्खलित भऽ अल्पेन्द्रिय भऽ जाइ अछि । ई देखि सखी कहै छथिन्ह – "अहाँ महादेव नहिं छी से हम जानि गेलहुँ । परन्तु हमहूँ अहाँ कै छका देलहुँ हम गौरी नहिं हुनकर सखी थिकहुँ ।"

हम - खट्टर कका, पुराण में एहन एहन व्यभिचार क उपाख्यान किऎक भरल छैक ?

खट्टर कका – हौ, एहन एहन व्यभिचार-पुराण गढि कय कवि लोकनि अपना मनक विकार बाहर कैने छथि । एहि द्वारे एक आलोचक खिसिया कऽ गारि देने छैन्ह -

 

पौराणिकानां व्यभिचार- दोषो
नशंकनीयः कृतिभिः कदाचित् ।
पुराणकर्त्ता व्यभिचारजातः
तस्यापि पुत्रः व्यभिचारजातः ॥

 

हम - खट्टर कका, ई सभ देखि कऽ यैह बूझि पड़ै अछि जे पुराण मे यौन वासनाक समुद्र लहरा रहल अछि ।

खट्टर कका - ताहि में कोन सन्देह ? तेहन तेहन विकृत वासनाक उदाहरण छैक जे देखि कऽ गुम्म रहि जैबह । एकटा ब्रह्मपुराणे क उपाख्यान लैह -

सहस्र वर्षक वृद्ध गौतम अपनो सॅं अधिक वृद्धा तपस्विनी क संग भोग करैत छथि। से देखि गौतमी कहैत छथिन्ह -

 

अभिषिंचस्व भार्यां त्वं वृद्धां विगलितस्तनीम् ।
नवयौवनसम्पन्ना रम्यरुपा भविष्यति ॥

 

ओहि गौतमी-तीर्थ में स्नान करैत देरी गलितस्तनी वृद्धा पुनः नवयौवना सुन्दरी बनि जाइत छथि ।

एक मही नामक तरुणी विधवा भेला पर वेश्या बनि जाइत छथि। ओ अपना युवा पुत्र सॅं समागम करैत छथि ।

 

मेने न पुत्रमात्मीयं स चापि न मातरम् ।
तयोः समागमश्चाऽसीद्विधिना मातृपुत्रयोः ॥

 

और ई दोष कटैत छैन्ह गौतमी-तीर्थ में स्नान कैला सॅं ।

सप्तर्षिक पत्नी गंगा में जा कऽ गर्भपात कऽ अबैत छथि । ओ पापप्रक्षालन होइत छैन्ह गौतमी-तीर्थ में स्नान कैला सॅं।

इन्द्र गौतम पत्नी (अहल्या ) मे गमन करैत छथि । गौतम शाप दैत छथिन्ह -

भगवत्या कृतं पापं सहस्रभगवान भव ।

ओहि शाप सॅं हुनका देह में सहस्र ट छिद्र भऽ जाइ छैन्ह। पाछाँ गौतमी-तीर्थ में स्नान कैने ओ सहस्र टा आँखि बनि जाइ छैन्ह ।

ओहि शाप सॅं हुनका देह में सहस्र ट छिद्र भऽ जाइ छैन्ह। पाछाँ गौतमी-तीर्थ में स्नान कैने ओ सहस्र टा आँखि बनि जाइ छैन्ह ।

 

तथाऽकरोच्चैव तारा भर्त्रा स्नानं यथाविधि ।
पुष्पवृष्टिरभूत्तत्र जयशब्दो व्यवर्त्तत ॥

 

केवल शुद्धे नहिं होइ छथि, हुनकर जयजयकारो होइ छैन्ह , देह पर पुष्पवर्षो होइ छैन्ह ! हौ, हमरा त बुझि पड़ै अछि जे ई सभ पंडा क प्रोपगंडा छैक । केहनो घोर पाप करु, अमुक तीर्थ में आबि कऽ स्नान करु, शुद्ध भऽ जाएब ।जौं एना माहात्म्य-वर्णन नहिं होइतैक त पंडा पुरोहित कैं आमदनी कोना होइतैन्ह ?

हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका, अहाँ त तेहन पुराण-चर्चा चला देलहुँ जे हमरा एहि ठाम भागवत् क रस भेटि गेल। आब आज्ञा दियऽ । घड़ी घंटा बाजि रहल छैक । कथा प्रारम्भ हेतैक । कहलकैक अछि -

 

येषां श्रीकृष्ण-लीला-ललित-रसकथा-सादरौ नैव कर्णौ ।
धिक् तान् धिक् तान् धिगेतान् कथयति सततं कीर्तनस्थो मृदंगः ॥

 

खट्टर कका मुसकुराइत बजलाह – हौ , गुरुजनक रस कथा सुनव कि कोनो नीक बात थिकैक ? हम त ई बुझैत छी जे --

 

येषां श्रीकृष्ण - लीला - ललित – रसकथा - लोलुपौ धृष्टकणै।
धिक तान धिक तान धिगेतान कथयति सततं कीर्त्तनस्थो मृदंगः ॥

 

खैर ,तों नव -नौतार छह । जाह । परन्तु तोरा काकी कैं हम ओहि में नहिं जाय देबैन्ह ,से कहि दैत छिऔह । बूढ -पुरान कैं भागवत -पुराण सँ कोन प्र योजन ?

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