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ध्रुवनिवासी रीछ का शिकार ( Dhruv Nivasi Reechh Ka Shikar ) - लियो टॉलस्टॉय की कहानी |

रूसी लेखक लियो टॉलस्टॉय ( जिनका जन्म 9 सितंबर 1828 को और मृत्यु 22 नवंबर 1910 को हुआ ) साहित्य संसार के प्रसिद्ध विद्वान लेखक हुए हैं। उन की महानतम रचनायों में 'आन्ना करेनिना' और 'युद्ध और शान्ति' जैसे उपन्यास शामिल हैं। उन की रचनायों का अनुवाद दुनिया की ज्यादातर भाषायों में हो चुका है। उनकी कुछ रचनाओं का मुंशी प्रेमचंद ने हिंदी में अनुवाद किया है| उनमे से एक अनुवादित कहानी "ध्रुवनिवासी रीछ का शिकार" की रचना निम्न है|

 

-: ध्रुवनिवासी रीछ का शिकार :-
लियो टॉलस्टॉय की कहानी |
(अनुवाद - प्रेमचंद )

हम एक दिन रीछ के शिकार को निकले। मेरे साथी ने एक रीछ पर गोली चलाई। वह गहरी नहीं लगी। रीछ भाग गया। बर्फ पर लहू के चिह्न बाकी रह गए।

हम एकत्र होकर यह विचार करने लगे कि तुरंत पीछा करना चाहिए या दो-तीन दिन ठहर कर उसके पीछे जाना चाहिए। किसानों से पूछने पर एक बूढ़ा बोला- तुरंत पीछा करना ठीक नहीं, रीछ को टिक जाने दो। पाँच दिन पीछे शायद वह मिल जाए। अभी पीछा करने पर तो वह डरकर भाग जाएगा।

इस पर एक दूसरा जवान बोला- नहीं-नहीं, हम आज ही रीछ को मार सकते हैं। वह बहुत मोटा है, दूर नहीं जा सकता। सूर्य अस्त होने से पहले कहीं न कहीं टिक जाएगा, नहीं तो मैं बर्फ पर चलने वाले जूते पहनकर ढूँढ़ निकालूँगा।

मेरा साथी तुरंत रीछ का पीछा करना नहीं चाहता था, पर मैंने कहा- झगड़ा करने से क्या मतलब। आप सब गाँव को जाइए। मैं और दुगार (मेरे सेवक का नाम) रीछ का पीछा करते हैं। मिल गया तो वाह वाह! दिन भर और करना ही क्या है?

और सब तो गाँव को चले गए, मैं और दुगार जंगल में रह गए। अब हम बंदूकें संभाल कर, कमर कस, रीछ के पीछे हो लिए।

रीछ का निशान दूर से दिखाई पड़ता था। प्रतीत होता था कि भागते समय कभी तो वह पेट तक बर्फ में धंस गया है, कभी बर्फ चीर कर निकला है। पहले-पहले तो हम उसकी खोज के पीछे बड़े-बड़े वृक्षों के नीचे चलते रहे, परंतु घना जंगल आ जाने पर दुगार बोला- अब यह राह छोड़ देनी चाहिए, वह यहीं कहीं बैठ गया है। धीरे-धीरे चलो, ऐसा न हो कि डर कर भाग जाए।

हम राह छोड़कर बाईं ओर लौट पड़े। पाँच सौ कदम जाने पर सामने वही चिह्न फिर दिखाई दिए। उसके पीछे चलते-चलते एक सड़क पर जा निकले। चिह्नों से जान पड़ता था कि रीछ गाँव की ओर गया है।

दुगार- महाराज, सड़क पर खोज लगाने से अब कोई लाभ नहीं। वह गाँव की ओर नहीं गया। आगे चलकर चिह्नों से पता लग जाएगा कि वह किस ओर गया है।

एक मील आगे जाने पर चिह्नों से ऐसा प्रकट होता था कि रीछ सड़क से जंगल की ओर नहीं, जंगल से सड़क की ओर आया है। उसकी उंगलियाँ सड़क की तरफ थीं। मैंने पूछा कि दुगार, क्या यह कोई दूसरा रीछ है?

दुगार- नहीं, यह वही रीछ है, उसने धोखा दिया है। आगे चलकर दुगार का कहना सत्य निकला, क्योंकि रीछ दस कदम सड़क की ओर आकर फिर जंगल की ओर लौट गया था।

दुगार- अब हम उसे अवश्य मार लेंगे। आगे दलदल है, वह वहीं जाकर बैठ गया है, चलिए।

हम दोनों आगे बढ़े। कभी तो मैं किसी झाड़ी में फँस जाता था, बर्फ पर चलने का अभ्यास न होने के कारण कभी जूता पैर से निकल जाता था। पसीने से भीग कर मैंने कोट कंधे पर डाल लिया, लेकिन दुगार बड़ी फुर्ती से चला जा रहा था। दो मील चलकर हम झील के उस पार पहुँच गए।

दुगार- देखो, सुनसान झाड़ी पर चिड़ियाँ बोल रही हैं, रीछ वहीं है। चिड़ियाँ रीछ की महक पा गई हैं।

हम वहाँ से हटकर आधा मील चले होंगे कि फिर रीछ का खुर दिखाई दिया। मुझे इतना पसीना आ गया कि मैंने साफा भी उतार दिया। दुगार को पसीना आ गया था।

दुगार- स्वामी, बहुत दौड़-धूप की, अब जरा विश्राम कर लीजिए।

संध्या हो चली थी। हम जूते उतार कर धरती पर बैठ गए और भोजन करने लगे। भूख के मारे रोटी ऐसी अच्छी लगी कि मैं कुछ कह नहीं सकता। मैंने दुगार से पूछा कि गाँव कितनी दूर है?

दुगार- कोई आठ मील होगा, हम आज ही वहाँ पहुँच जाएँगे। आप कोट पहन लें, ऐसा न हो सर्दी लग जाए।

दुगार ने बर्फ ठीक करके उस पर कुछ झाड़ियाँ बिछाकर मेरे लिए बिछौना तैयार कर दिया। मैं ऐसा बेसुध सोया कि इसका ध्यान ही न रहा कि कहाँ हूँ। जागकर देखता हूँ कि एक बड़ा भारी दीवानखाना बना हुआ है, उसमें बहुत से उजले चमकते हुए खंभा लगे हुए है, उसकी छत तवे की तरह काली है, उसमें रंगदार अनंत दीपक जगमगा रहे हैं। मैं चकित हो गया। परंतु तुरंत मुझे याद आई कि यह तो जंगल है, यहाँ दीवानखाना कहाँ? असल में श्वेत खंभे तो बर्फ से ढँके हुए वृक्ष थे, रंगदार दीपक उनकी पत्तियों में से चमकते हुए तारे थे।

बर्फ गिर रही थी, जंगल में सन्नाटा था। अचानक हमें किसी जानवर के दौड़ने की आहट मिली। हम समझे कि रीछ है, परंतु पास जाने पर मालूम हुआ कि जंगली खरहा है। हम गाँव की ओर चल दिए। बर्फ ने सारा जंगल श्वेत बना रखा था। वृक्षों की शाखाओं में से तारे चमकते और हमारा पीछा करते ऐसे दिखाई देते थे कि मानो सारा आकाश चलायमान हो रहा है।

जब हम गाँव पहुँचे तो मेरा साथी सो गया था। मैंने उसे जगाकर सारा वृत्तांत कह सुनाया और जमींदार से अगले दिन के लिए शिकारी एकत्र करने को कहा। भोजन करके सो रहे। मैं इतना थक गया था कि यदि मेरा साथी मुझे न जगाता, तो मैं दोपहर तक सोया पड़ा रहता। जागकर मैंने देखा कि साथी वस्त्र पहने तैयार है और अपनी बंदूक ठीक कर रहा है।

मैं- दुगार कहाँ है?

साथी- उसे गए देर हुई। वह कल के निशान पर शिकारियों को इकट्ठा करने गया है।

हम गाँव के बाहर निकले। धुंध के मारे सूर्य दिखाई न पड़ता था! दो मील चलकर धुआं दिखाई पड़ा। समीप जाकर देखा कि शिकारी आलू भून रहे हैं और आपस में बातें करते जाते हैं। दुगार भी वहीं था। हमारे पहुंचने पर वे सब उठ खड़े हुए। रीछ को घेरने के लिए दुगार उन सबको लेकर जंगल की ओर चल दिया। हम भी उसके पीछे हो लिए। आधा मील चलने पर दुगार ने कहा कि अब कहीं बैठ जाना उचित है। मेरे बाईं ओर ऊँचे-ऊँचे वृक्ष थे। सामने मनुष्य के बराबर ऊँची बर्फ से ढँकी हुई घनी झाड़ियाँ थीं, इनके बीच से होकर एक पगडंडी सीधी वहाँ पहुँचती थी, जहाँ मैं खड़ा हुआ था। दाईं ओर साफ मैदान था। वहाँ मेरा साथी बैठ गया।

मैंने अपनी दोनों बंदूकों को भली भाँति देखकर विचारा कि कहाँ खड़ा होना चाहिए। तीन कदम पीछे हटकर एक ऊँचा वृक्ष था। मैंने एक बंदूक भरकर तो उसके सहारे खड़ी कर दी, दूसरी घोड़ा चाकर हाथ में ले ली। म्यान से तलवार निकाल कर देख ही रहा था कि अचानक जंगल में से दुगार का शब्द सुनाई दिया- "वह उठा, वह उठा!" इस पर सब शिकारी बोल उठे, सारा जंगल गूँज पड़ा। मैं घात में था कि रीछ दिखाई पड़ा और मैंने तुरंत गोली छोड़ी।

अकस्मात बाईं ओर बर्फ पर कोई काली चीज दिखाई दी। मैंने गोली छोड़ी, परंतु खाली गई और रीछ भाग गया।

मुझे बड़ा शोक हुआ कि अब रीछ इधर नहीं आएगा। शायद साथी के हाथ लग जाए। मैंने फिर बंदूक भर ली, इतने में एक शिकारी ने शोर मचाया- "यह है, यह है यहाँ आओ!"

मैंने देखा कि दुगार भाग कर मेरे साथी के पास आया और रीछ को उंगली से दिखाने लगा। साथी ने निशाना लगाया। मैंने समझा, उसने मारा, परंतु वह गोली भी खाली गई, क्योंकि यदि रीछ गिर जाता तो साथी अवश्य उसके पीछे दौड़ता। वह दौड़ा नहीं, इससे मैंने जाना कि रीछ मरा नहीं।

हैं! क्या आपत्ति आई, देखता हूँ कि रीछ डरा हुआ अंधाधुंध भागा मेरी ओर आ रहा है। मैंने गोली मारी, परंतु खाली गई। दूसरी छोड़ी, वह लगी तो सही, परंतु रीछ गिरा नहीं। मैं दूसरी बंदूक उठाना ही चाहता था कि उसने झपट कर मुझे दबा लिया और लगा मेरा मुँह नोंचने। जो कष्ट मुझे उस समय हो रहा था, मैं उसे वर्णन नहीं कर सकता। ऐसा प्रतीत होता था मानो कोई छुरियों से मेरा मुँह छील रहा है।

इतने में दुगार और साथी रीछ को मेरे ऊपर बैठा देख कर मेरी सहायता को दौड़े। रीछ उन्हें देख, डरकर भाग गया। सारांश यह कि मैं घायल हो गया, पर रीछ हाथ न आया और हमें खाली हाथ गाँव लौटना पड़ा।

एक मास पीछे हम फिर उस रीछ को मारने के लिए गए, मैं फिर भी उसे न मार सका उसे दुगार ने मारा, वह बड़ा भारी रीछ था। उसकी खाल अब तक मेरे कमरे में बिछी हुई है।

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